कर्म संन्यास

 


 


चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता

 ज्ञान और भक्ति का सही सम्मलेन ही वह पड़ाव है जहाँ से कर्म को एक सही दिशा मिल जाया करेगी और व्यक्ति अपने लिए एक निर्णायक मार्ग कि तलाशी कर सकेगा ; उसे अंतरात्मा के साथ जुड़े हुए परमात्मा का सान्निध्य भी अनुभव होता रहेगा।

कभी कभी हम इस भ्रम में आ जाते हैं जब मन में यह विचार पनपने लगता है कि धर्मात्मा और महात्मा बनने के लिए शायद सबकुछ छोड़कर सभी विधायक कर्मों का त्याग करके तपस्या करते रहना पड़ेगा ; शायद दिन और रात के बारे में भी जानकारी न मिल पाएगी; शायद सभी रिश्ते नातों का त्याग कर देना होगा; ऐसा भी हो सकता कि किसी एकांत में जाकर समाज से हटकर उपायाचक के नाते जीवन जीने के लिए प्रस्तुत होना पड़े।  ऐसे संत महात्मा जरूर हुए जिन्होंने भोग्य वस्तु का त्याग करके ज्ञान मार्ग पर चलकर भक्त वत्सल के लिए मिसाल कायम कर गए। पर ऐसा शायद ही हुआ होगा जिसमें किसी तपस्वी साधक ने भोजन, श्वास वायु और शौच संतोष का त्याग किया हो ; जीवन जीने के प्रयत्न के अंतर्गत हर जीव को भोजन, श्वास वायु, शौच , संतोष आदि का सहारा तो लेना ही होगा।  यहीं से जीव मात्र के लिए यह अनिवार्य बन जाता है कि उन्हें प्रकृति के अधीन रहना पड़े और प्रकृति के कुछ नियमों का पालन करे।  साधना कितनी भी गहन हो बीच में नींद आने लगे तो फिर तपस्या को विराम देना ही होगा।

 तपस्या, ध्यान, प्राण वायु का नियंत्रण, कर्म कि शुद्धता आदि विषयों के बारे में हम कुछ भी अतिशयोक्ति करते समय इतना तो ध्यान अवश्य रखें कि हमें उस सर्व शक्तिमान के अनुकम्पा के अधीन ही जीवन जीना होगा; उसी विधायक कर्म को भी अपनाना होगा जिसके बल पर हमारे जीवन का रथ गतिशील हो सके; उन्हीं लोगों के बीच रहना होगा जिनके बीच हमारे मन को संतोष मिले; उन्हीं लोगों के लिए काम करना होगा जिनसे हमें कुछ उम्मीदें रही हो; उसी तत्व का संरक्षण और सम्प्रचार करना होगा जिसके जरिये हम सार्विक समाधान और समन्वय का सपना देखा करते हों; उन्ही तत्वों को प्रतिफलित होते हुए देखना होगा जिनके बीच दिव्य जीवन कि स्वच्छंद गति सुनिश्चित हो सके। 

तीन प्रकार के लोग अपने चारों और तपस्या और इष्ट चिंतन करते हुआ पाए जा सकेंगे: कुछ ऐसे लोग रहेंगे जिन्हें धन - सम्पदा और पैसा चाहिए, कुछ ऐसे भी लोग रहेंगे जिन्हें पैसों से ज्यादा चिंता प्रतिष्ठा पाने कि रहेगी; तीसरे कुछ ऐसे प्रकार रहेंगे जिन्हें न तो पैसा चाहिए और न ही प्रतिष्ठा, उन्हें सिर्फ उस दिव्य ज्ञान का अनुसंधान करने कि अभिलाषा रहेगी जिसके आधार पर व्यक्ति के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो सके।  वह एक ऐसे मार्ग का पथिक होना चाहेगा जिसपर चलकर जन्म-मृत्यु के द्वन्द से खुद को मुक्त किया जा सके। 

आध्यात्मिक परिपक्वता

पहले  पहल  तो एक ऐसी परिस्थिति बनती है जब हम खुद को किसी भी कृति का कर्ता मान लेते हैं और उसी भ्रम जीवन बिता देते हैं कि हमने कुछ किया; कुछ ऐसी कृति जिसका श्रेय हम चाहते हैं कि हमें मिले।  फिर एक ऐसा पड़ाव आता जब हमारी समझ बनती है कि सृष्टि और विनाश तो प्रकृति के नियमों के अधीन एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है और इसमें पदार्थ और ऊर्जा का आपसी मेल बंधन का विज्ञान क्रियाशील निकाय बना; यह भी एक भवितव्य ही है है कि हर जीव के जीवन में मृत्यु का अनुशाशन कभी भी आ सकता।  एक पड़ाव ऐसा भी आता है जब व्यक्ति जीवन को काफी मूल्यवान मानते हुए सभी अल्पावधि के सुखों को छोड़कर उस आनंदमय जीवन का पथिक बन जाना पसंद करेगा जिसपर चलकर आत्मा और अरमात्मा के रिश्तों को उनके सही स्वरुप में उपलब्धि किया जा सके और जीव के लिए सम्यक ज्ञान के आधार पर कर्म बंधन से मुक्ति का मार्ग प्रशांत किया जा सके। 

शास्त्र, पुराण, आगम , निगम आदि सभी दिव्य ग्रंथों और संत वाणी का एक ही मकसद रहा कि भक्त को कर्म के बंधन से और माया के संसार से मुक्त किया जा सके; उस मुक्ति के मार्ग पर सबका सम्यक अभिषेक हो सके; यह कुछ ऐसा ही हुआ कि किसी बगीचे में जाकर एक फल खाने के बाद संत सभी भक्तों को बताने लगे और यही आग्रह करते रहे कि बाकी के भक्त वत्सल भी उस बगीचे में दाखिल होकर उस फल का आस्वाद लें और जीवन को धन्य कर लें; यह कुछ ऐसा ही अनुभव मन जाएगा जैसे एक परिंदा ऊंची उड़ान भरते हुए नीले आसमान में गोते लगाता हो; जैसे एक भक्त प्रेम पूर्वक अपने भगवान को भोजन कराता हो और बाकी भक्तों से निवेदन करता हो कि वो भी ऐसा ही करें। इस प्रकार दिव्य जीवन का अनुसंधान करनेवाल साधक कभी भी अकेले मुक्त हो जाने के लिए तपस्या शायद ही करता हो।  उसे समग्र समाज को मुक्त करने कि चिंता सताया करेगी; उसे ऐसा भी लगेगा कि किसी भी भक्त के जीवन में संकट ही न रहे; भक्त वत्सल को ईश्वर अनुकम्पा मिले। यह कुछ ऐसी ही परिस्थिति बन जाया  करेगी जिसके अंतर्गत भक्त प्रह्लाद अपने प्रपंचक पिता के लिए इष्ट के पास क्षमा याचना करते रहे; नचिकेता विधाता से यह निवेदन करते रहे कि उनके पिता को यश और प्रतिष्ठा मिले ; शत्रु भाव नष्ट हो जाने के और भी कई प्रमाण गिनाये जा सकेंगे जिसके बल पर इतना तो अवश्य कहा जा सकेगा कि दिव्य जीवन कि अनुसन्धित्सा रखनेवालों के मन से शत्रुभाव नष्ट हो जाता होगा।  इसके अभ्यासी ही और सटीक तरीके से बता सकेंगे कि उनके मन, चित्त और बुद्धि पर क्या बीत रही होगी जब उन्हें यह तय कर लेना होता है कि ध्रुव सत्य के अनुसंधान में ही जीवन बिताना होगा।  भगवद्गीता में भी कर्म संन्यास और कर्मयोग के बीच हर प्रकार के समानता के बारे में बताई जाती है और यह भी माना गया कि सभी प्रकार के द्वन्द से मुक्त होते होते व्यक्ति माया के बंधनों से मुक्त हो जाया करेगा। केवल अल्पज्ञानी जन इस भ्रम में जकड़े रह जाते हैं कि कर्मयोग और कर्म संन्यास शायद कुछ अलग  अलग विधाएँ हैं।   ( V. १-४ )  

वास्तव में कर्मयोग और कर्म संन्यास को एक सामान ही देखा जाना चाहिए।  भक्ति के साथ कर्म किये बिना उस परिपक्वता को पाना भी संभव ही नहीं।  सभी इन्द्रियों को भली भाँती वश में रखते हुए बुद्धि का प्रयोग करते हुए कर्म करनेवालों को सहजता से ही कर्म बंधन से मुक्ति मिल जाय करेगी; दृढ निश्चय रखनेवाले खुद को कर्ता न मानते हुए कर्म करते रहेंगे;  कर्मफल इष्ट को अर्पित करदेनेवालों को पाप कभी भी ग्रसित नहीं कर सकता; योगीजन के लिए कर्म का प्रयोजन सिर्फ आत्म शुद्धि पाने से है; आसक्ति रहित होकर कर्म करते रहने के कारण भी योगी जन कर्म बंधन से खुद को मुक्त रखने में समर्थ हो जाया करेंगे; निरासक्त व्यक्ति शरीर में रहते हुए भी सभी रकार के कर्मबन्धन से मुक्त रहेंगे (भगवद्गीता V.  ५-१२) ।  कर्म फलों के बोध का पनपना प्रकृति के अधीन है; सर्वव्यापी परमात्मा भी पाप-पुण्य के कर्मों से निर्लिप्त ही रहेंगे ; मोहान्ध भक्तों की बुद्धि भी अज्ञान से आच्छादित रहेगी ; ज्ञान तो उस सूर्यप्रभा के सामान ही है जिसकी किरणों से संसार प्रकाशमान और व्यक्त हो उठता है; वह ज्ञान का प्रकाश ही है जिसके प्रभाव से सभी प्रकार के पा कर्मों का नाश हो जाया करेगा, इष्ट के प्रति श्रद्धा  और विशवास बढ़ेगा, विधायक कर्मों में लिप्त रहते हुए मुक्ति पाने के मार्ग पर बढ़ाते रहेंगे  (भगवद्गीता V.  १३ -१६) ।

बुद्धि, समझ, श्रद्धा, विशवास और संतोष को किसी भी साधक के जीवन में तभी स्थिर होता हुआ देखा जा सकेगा जब उनके जीवन में  हम दिव्य ज्ञान का उत्सर्जन होता हुआ परिलल्क्षित कर सकें। यह एक ऐसी परिस्थित है जहाँ व्यक्ति सभी नाशवान तत्वों से खुद को मुक्त करते हुए दिव्यज्ञान का साधक बने और ध्रुव सत्य का अनुसंधान करता रहे।   

कभी कभी यह भी दावे किये जाते रहे हैं कि दिव्य जीवन और ध्रुव सत्य का अनुसंधान करनेवालों कि गतिविधि से कर्म विमुखता ही पनपेगी और व्यक्ति कर्तव्य कर्म से भाग खड़े होने के लिए मार्ग निकालने लगेंगे; ऐसे कई साधक बनेंगे जो यह कहकर कर्म विमुख हो जाया करेंगे कि उन्हें समय नहीं मिलता; कुछ ऐसे साधक रहेंगे जिन्हें भक्त वत्सल लोगों के पास से सिर्फ दान पाने कि अभिलाषा रहेगी; कई साधक ऐसे भी हो जाया करेंगे जिन्हें धर्म कि एक नयी  पगडण्डी बनाने कि अभिलाषा रहेगी।  वैसे अनेकांतवादी यह भी विचार रख देते हैं कि "जितने मत हैं उतने ही पथ हैं"।  ऐसा होना भी चाहिए; तभी तो जलधारा को पहाड़ी से उतर आने के लिए विविध मार्ग का अनुसंधान करते हुए अग्रसर रहना होगा; यह भी मान्यता बन सकेगी: सभी धाराएं गंगाजी कि पवित्र धरा रहे और उतना ही मंगलकारी हो।  यह तो हमारी समझ पर ही टिका रहेगा कि हम उस धरा को क्या समझें और कैसे स्वीकार करें।  यह तो कुछ ऐसा ही हुआ कि एक कटोरा लेकर हमने समुद्र से पानी उठाया , फिर उस पानी को समुद्र के विस्तीर्ण जलराशि में मिला दिया और यह तलाश करने लग गए कि समुद्र में मिलनेवाले पानी का कौन सा हिस्सा उस कटोरे में था ! मौजूदा परिस्थिति में विविध प्रकार से विडम्बना का निर्माण होता आया जब हम किसी समुदाय को मतों और पंथों में बँट जाते हुए देखते आये हैं।  संत महात्मा का यही प्रयास रहेगा कि सभी समुदाय को किसी ख़ास मापदंड पर एक किया जा सके और उन्हें शाश्वत मार्ग का पथिक बनाया जा सके; अब उस मार्ग का कुछ भी नाम हो और उस विचारधारा को किधर से भी बहने दिया जाता हो ; अंततः एक ही पड़ाव पर सबका महा सम्मलेन होना एक भवितव्य ही है। 

इसमें कोई संदेह नहीं कि वेद, उपनिषद्, गीता, महाभारत, रामायण, पुराण, आगम ,निगम आदि पवित्र ग्रंथों के जरिये संत महात्मा समय समय हमारा दिशा निर्देशित करते आए और ऐसा आगे भी करते ही रहेंगे; फिर भी एक ऐसा विचार बनता है कि अब जलबिंदु को जलबिंदु ही समझा जाय और हमारा मार्ग उस दैवत्व के विशुद्ध तत्व को सही प्रकार से समझने के लिए बने जिसपर चलकर संत महात्मा समग्र मानव समाज को विशुद्ध दैवत्व के उपस्थिति का अनुभव दे सकें।  जीव मात्र के अभिव्यक्त होने की क्रिया में उस देवत्व को सन्निविष्ट  रहते हुए भी देखा जा सकेगा; सिर्फ इतना ही नहीं उस पूर्ण देवत्व का अंशमात्र को जीव चेतना में भी परिलक्षित किया जा सकेगा। 

 

 

 

 

श्री गणेश का संकटनाशन स्तोत्र :

 


प्रणम्यं शिरसा देव गौरीपुत्रं विनायकम।

भक्तावासं: स्मरैनित्यंमायु:कामार्थसिद्धये।।1।।


प्रथमं वक्रतुंडंच एकदंतं द्वितीयकम।

तृतीयं कृष्णं पिङा्क्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम।।2।।

 

लम्बोदरं पंचमं च षष्ठं विकटमेव च।

सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्ण तथाष्टकम् ।।3।।


नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम।

एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम।।4।।

 

द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्य य: पठेन्नर:।

न च विघ्नभयं तस्य सर्वासिद्धिकरं प्रभो।।5।।


 

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम्।

पुत्रार्थी लभते पुत्रान् मोक्षार्थी लभते गतिम् ।।6।।

 

जपेद्वगणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासै: फलं लभेत्।


संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशय: ।।7।।

 

अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वां य: समर्पयेत।

तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादत:।।8।।

 

॥ इति श्रीनारदपुराणे संकष्टनाशनं गणेशस्तोत्रं सम्पूर्णम्‌ ॥

 

 



কর্মের বাপ্তি


হিন্দুশাস্ত্রমতে মানব-সাধারণের ধর্ম ব্যতীত প্রত্যেক ব্যক্তির জীবনে বিশেষ বিশেষ কর্তব্য আছে। হিন্দুকে প্রথমে ব্রহ্মচর্যাশ্রমে ছাত্ররূপে জীবন আরম্ভ করিতে হয়, তারপর বিবাহ করিয়া গৃহী হইতে হয়; বৃদ্ধাবস্থায় হিন্দু গৃহস্থাশ্রম হইতে অবসর গ্রহণ করিয়া বানপ্রস্থ অবলম্বন করে এবং সর্বশেষে সংসার ত্যাগ করিয়া সন্ন্যাসী হয়। বিভিন্ন আশ্রম অনুসারে জীবনের প্রত্যেক স্তরে বিভিন্ন কর্তব্য উপদিষ্ট হইয়াছে। এই আশ্রমগুলির মধ্যে কোনটিই অপরটি হইতে বড় নয়। যিনি বিবাহ না করিয়া ধর্মকার্যের জন্য জীবন উৎসর্গ করিয়াছেন, তাঁহার জীবন যত মহৎ, বিবাহিত ব্যক্তির জীবনও তত মহৎ। সিংহাসনে আরূঢ় রাজা যেরূপ মহান্ ও গৌরবান্বিত, রাস্তার ঐ ঝাড়ুদারও সেইরূপ। রাজাকে তাঁহার রাজসিংহাসন হইতে উঠাইয়া ঝাড়ুদারের কাজ করিতে দাও—দেখ তিনি কতটা পারেন। আবার ঝাড়ুদারকে লইয়া সিংহাসনে বসাইয়া দাও—দেখ, সে-ই বা রাজকার্য কিরূপে চালায়। সংসারী অপেক্ষা সংসারত্যাগী মহত্তর, এ-কথা বলা বৃথা। সংসার হইতে স্বতন্ত্র থাকিয়া স্বাধীন সহজ জীবনযাপন অপেক্ষা সংসারে থাকিয়া ঈশ্বরের উপাসনা করা অনেক কঠিন কাজ। আজকাল ভারতে পূর্বোক্ত চারিটি আশ্রম কেবল গার্হস্থ্য ও সন্ন্যাস—এই দুইটি আশ্রমে পর্যবসিত হইয়াছে। গৃহস্থ বিবাহ করেন এবং সামাজিক কর্তব্য করিয়া যান; আর সংসারত্যাগীর কর্তব্য—তাঁহার সমুদয় শক্তি কেবল ধর্মের দিকে নিয়োজিত করা; তিনি কেবল ঈশ্বরোপাসনা করিবেন এবং ধর্মশিক্ষা দিবেন।

‘মহানির্বাণ-তন্ত্র’ হইতে এই প্রসঙ্গ কিছু পড়িব। ঐগুলি শুনিলে তোমরা বুঝিবে গৃহস্থ হওয়া এবং গৃহস্থের কর্তব্য যথাযথভাবে প্রতিপালন করা অতি কঠিন।

ব্রহ্মনিষ্ঠো গৃহস্থঃ স্যাৎ ব্রহ্মজ্ঞানপরায়ণঃ।
যদ্‌যৎ কর্ম প্রকুর্বীত তদ্ ব্রহ্মণি সমর্পয়েৎ॥

গৃহস্থ ব্যক্তি ঈশ্বরপরায়ণ হইবেন। ব্রহ্মজ্ঞান লাভই যেন তাঁহার জীবনের চরম লক্ষ্য হয়। তথাপি তাঁহাকে সর্বদা কর্ম করিতে হইবে, তাঁহার নিজের সমুদয় কর্তব্য সাধন করিতে হইবে এবং তিনি যাহাই করিবেন, তাহাই তাঁহাকে ব্রহ্মে সমর্পণ করিতে হইবে।

কর্ম করা অথচ ফলাকাঙ্ক্ষা না করা, লোককে সাহায্য করা অথচ তাহার নিকট হইতে কোনপ্রকার কৃতজ্ঞতার প্রত্যাশা না করা, সৎকর্ম করা অথচ উহাতে নাম-যশ হইল বা না হইল, এ-বিষয়ে একেবারে দৃষ্টি না দেওয়া—এইটিই এ জগতে সর্বাপেক্ষা কঠিন ব্যাপার। জগতের লোক যখন প্রশংসা করে, তখন ঘোর কাপুরুষও সাহসী হয়। সমাজের অনুমোদন ও প্রশংসা পাইলে নির্বোধ ব্যক্তিও বীরোচিত কার্য করিতে পারে, কিন্তু কাহারও স্তুতি-প্রশংসা না চাহিয়া অথবা সেদিকে আদৌ দৃষ্টি না দিয়া সর্বদা সৎকার্য করাই প্রকৃতপক্ষে সর্বশ্রেষ্ঠ স্বার্থত্যাগ।

ন মিথ্যাভাষণং কুর্যাৎ ন চ শাঠ্যং সমাচরেৎ।
দেবতাতিথিপূজাসু গৃহস্থো নিরতো ভবেৎ॥

গৃহস্থের প্রধান কর্তব্য জীবিকার্জন, কিন্তু তাঁহাকে বিশেষ লক্ষ্য রাখিতে হইবে, মিথ্যা কথা বলিয়া, প্রতারণা দ্বারা অথবা চুরি করিয়া যেন উহা সংগ্রহ না করেন। আর তাঁহাকে স্মরণ রাখিতে হইবে, তাঁহার জীবন ঈশ্বরের সেবার জন্য, দরিদ্র ও অভাবগ্রস্তদের সেবার জন্য।

মাতরং পিতরঞ্চৈব সাক্ষাৎ প্রত্যক্ষদেবতাম্।

মত্বা গৃহী নিষেবেত সদা সর্বপ্রযত্নতঃ॥

মাতা ও পিতাকে প্রত্যক্ষ দেবতা জানিয়া গৃহী ব্যক্তি সর্বদা সর্বপ্রযত্নে তাঁহাদের সেবা করিবেন।

তুষ্টায়াং মাতরি শিবে তুষ্টে পিতরি পার্বতি।
তব প্রীতির্ভবেদ্দেবি পরব্রহ্ম প্রসীদতি॥

যদি মাতা ও পিতা তুষ্ট থাকেন, তবে সেই ব্যক্তির প্রতি ভগবান্ প্রীত হন; হে পার্বতী, তুমিও তাহার প্রতি প্রীতা হও।

ঔদ্ধত্যং পরিহাসঞ্চ তর্জনং পরিভাষণম্।
পিত্রোরগ্রে ন কুর্বীত যদীচ্ছেদাত্মনো হিতম্॥
মাতরং পিতরং বীক্ষ্য নত্বোত্তিষ্ঠেৎ সসম্ভ্রমঃ।
বিনাজ্ঞয়া নোপবিশেৎ সংস্থিতঃ পিতৃশাসনে॥

পিতামাতার সম্মুখে ঔদ্ধত্য, পরিহাস, চঞ্চলতা ও ক্রোধ প্রকাশ করিবে না। যে সন্তান পিতামাতাকে কখনও কর্কশ কথা বলে না, সেই প্রকৃত সুসন্তান। পিতামাতাকে দর্শন করিয়া সসম্ভ্রমে প্রণাম করিবে, তাঁহাদের সম্মুখে দাঁড়াইয়া থাকিবে, আর যতক্ষণ না তাঁহারা বসিতে অনুমতি করেন, ততক্ষণ বসিবে না।

মাতরং পিতরং পুত্ত‍্রং দারানতিথিসোদরান্।
হিত্বা গৃহী ন ভুঞ্জীয়াৎ প্রাণৈঃ কণ্ঠগতৈরপি॥
বঞ্চয়িত্বা গুরূন্ বন্ধূন্ যো ভুঙ্‌ক্তে স্বোদরম্ভরঃ।
ইহৈব লোকে গর্হ্যোঽসৌ পরত্র নারকী ভবেৎ॥

মাতা, পিতা, পুত্র, পত্নী, ভ্রাতা, অতিথিকে ভোজন না করাইয়া যে গৃহী ব্যক্তি নিজের উদরপূরণ করে, সে পাপ করিতেছে।

জনন্যা বর্ধিতো দেহো জনকেন প্রযোজিতঃ।
স্বজনৈঃ শিক্ষিতঃ প্রীত্যা সোঽধমস্তান্ পরিত্যজেৎ॥
এষামর্থে মহেশানি কৃত্বা কষ্টশতান্যপি।
প্রীণয়েৎ সততং শক্ত্যা ধর্মো হ্যেষ সনাতন॥

পিতামাতা হইতেই এই শরীর উৎপন্ন হইয়াছে, অতএব শত শত কষ্ট স্বীকার করিয়াও তাঁহাদের প্রীতিসাধন করা উচিত।

ন ভার্যান্তাড়য়েৎ ক্বাপি মাতৃবৎ পালয়েৎ সদা।
ন ত্যজেৎ ঘোরকষ্টেঽপি যদি সাধ্বী পতিব্রতা॥
স্থিতেষু স্বীয়দারেষু স্ত্রিয়মান্যাং ন সংস্পৃশেৎ।
দুষ্টেন চেতসা বিদ্বান্ অন্যথা নারকী ভবেৎ॥
বিরলে শয়নং বাসং ত্যজেৎ প্রাজ্ঞঃ পরস্ত্রিয়া।
অযুক্তভাষণঞ্চৈব স্ত্রিয়ং শৌর্যংন দর্শয়েৎ॥
ধনেন বাসসা প্রেম্না শ্রদ্ধয়ামৃতভাষণৈঃ।
সততং তোষয়েদ্দারান্ নাপ্রিয়ং ক্বচিদাচরেৎ॥
যস্মিন্নরে মহেশানি তুষ্টা ভার্যা পতিব্রতা।
সর্বো ধর্মঃ কৃতস্তেন ভবতি প্রিয় এব সঃ॥১০

ভার্যার প্রতিও গৃহস্থের অনুরূপ কর্তব্য আছেঃ গৃহী ব্যক্তি পত্নীকে কখনও তাড়না করিবে না, তাঁহাকে সর্বদা মাতৃবৎ পালন করিবে, আর যদি তিনি সাধ্বী ও পতিব্রতা হন, তবে ঘোর কষ্টে পতিত হইলেও তাঁহাকে ত্যাগ করিবে না। বিদ্বান্ ব্যক্তি নিজ পত্নী বর্তমানে অন্য স্ত্রীকে স্ত্রীভাবে স্পর্শ করিবেন না; এরূপ করিলে নরকে যাইতে হয়। প্রাজ্ঞ ব্যক্তি পরস্ত্রীর সহিত নির্জনে শয়ন বা বাস করিবেন না, স্ত্রীলোকের সম্মুখে অশিষ্ট বাক্য প্রয়োগ করিবেন না এবং নিজের বাহাদুরিও দেখাইবেন না। ধন, বস্ত্র, প্রেম, শ্রদ্ধা, বিশ্বাস ও অমৃততুল্য বাক্য দ্বারা সর্বদা পত্নীর সন্তোষ বিধান করিবেন, কখনও তাঁহার কোনরূপ অপ্রিয় আচরণ করিবেন না। হে পার্বতী, যে ব্যক্তির উপর পতিব্রতা ভার্যা তুষ্ট থাকেন, তিনি সমুদয় ধর্মই আচরণ করিয়াছেন এবং তিনি তোমার প্রিয়।

চতুর্বর্ষাবধি সুতান্ লালয়েৎ পালয়েৎ পিতা।
ততঃ ষোড়শপর্যন্তং গুণান্ বিদ্যাঞ্চ শিক্ষয়েৎ॥
বিংশত্যব্দাধিকান্ পুত্ত‍্রান্ প্রেষয়েদ্ গৃহকর্মসু।
ততস্তাংস্তুল্যভাবেন মত্বা স্নেহং প্রদর্শয়েৎ॥
কন্যাপ্যেবং পালনীয়া শিক্ষণীয়াতিযত্নতঃ।
দেয়া বরায় বিদুষে ধনরত্নসমন্বিতা॥১১

পুত্রকন্যার প্রতি গৃহস্থের কর্তব্য এইরূপঃ চারি বর্ষ বয়স পর্যন্ত পুত্রগণকে লালনপালন করিবে, পরে ষোড়শ বর্ষ বয়স পর্যন্ত নানাবিধ সদ‍্‍‍গুণ ও বিদ্যা শিক্ষা দিবে। বিংশতি বর্ষ বয়স হইলে তাহাদিগকে গৃহকর্মে প্রেরণ করিবে, তারপর আত্মতুল্য বিবেচনা করিয়া তাহাদের প্রতি স্নেহ প্রদর্শন করিবে। এইরূপে কন্যাকেও পালন করিতে হইবে, অতি যত্নপূর্বক শিক্ষা দিতে হইবে এবং ধনরত্নের সহিত বিদ্বান্ বরকে সম্প্রদান করিতে হইবে।

এবংক্রমেণ ভ্রাতৃংশ্চ স্বসৃভ্রাতৃসুতানপি।
জ্ঞাতীর্ন্ মিত্রাণি ভৃত্যাংশ্চ পালয়েত্তোষয়েদ্ গৃহী॥
ততঃ স্বধর্মনিরতানেকগ্রামনিবাসিনঃ।
অভ্যাগতানুদাসীনান্ গৃহস্থো পরিপালয়েৎ॥
যদ্যেবং নাচরেদ্দেবি গৃহস্থো বিভবে সতি।
পশুরেব স বিজ্ঞেয়ঃ স পাপী লোকগর্হিতঃ॥১২

গৃহী ব্যক্তি এইরূপে ভ্রাতা-ভগিনী, ভ্রাতুষ্পুত্র, ভাগিনেয়, জ্ঞাতি, বন্ধু ও ভৃত্যগণকে প্রতিপালন এবং তাহাদের সন্তোষ বিধান করিবেন। তারপর গৃহস্থ ব্যক্তি স্বধর্মনিরত, একগ্রামবাসী, অভ্যাগত ও উদাসীনগণকে প্রতিপালন করিবেন। হে দেবি! বিত্ত থাকা সত্ত্বেও যদি গৃহস্থ এরূপ আচরণ না করেন, তবে তাঁহাকে পশু বলিয়া জানিতে হইবে; তিনি লোকসমাজে নিন্দনীয় ও পাপী।

নিদ্রালস্যং দেহযত্নং কেশবিন্যাসমেব চ
আসক্তিমশনে বস্ত্রে নাতিরিক্তং সমাচরেৎ॥
যুক্তাহারো যুক্তনিদ্রো মিতবাঙ্মিতমৈথুনঃ।
স্বচ্ছো নম্রঃ শুচির্দক্ষো যুক্তঃ স্যাৎ সর্বকর্মসু॥১৩

গৃহী ব্যক্তি অতিরিক্ত নিদ্রা, আলস্য, দেহের যত্ন, কেশবিন্যাস এবং অশন-বসনে আসক্তি ত্যাগ করিবে। গৃহী ব্যক্তি আহার, নিদ্রা, বাক্য, মৈথুন—এ-সকলই পরিমিত-ভাবে করিবে। গৃহস্থ অকপট, নম্র, বাহিরে অন্তরে শৌচসম্পন্ন, সকল কর্মে উদ্যোগী ও নিপুণ হইবে।

শূরঃ শত্রৌ বিনীতঃ স্যাৎ বান্ধবে গুরুসন্নিধৌ।১৪

গৃহী ব্যক্তি শত্রুর সমক্ষে শৌর্য বীর্য অবলম্বন করিবে এবং গুরু ও বন্ধুগণের সমীপে বিনীত থাকিবে।

শত্রুগণকে বীর্যপ্রকাশ করিয়া শাসন করিতে হইবে। ইহা গৃহস্থের অবশ্য কর্তব্য। গৃহস্থ ঘরের এককোণে বসিয়া কাঁদিবে না, অপ্রতিকার-বিষয়ক বাজে কথা বলিবে না। গৃহস্থ যদি শত্রুগণের নিকট শৌর্য প্রদর্শন না করে, তাহা হইলে তাহার কর্তব্যের অবহেলা করা হয়। কিন্তু বন্ধুবান্ধব, আত্মীয়স্বজন ও গুরুর নিকট তাহাকে মেষতুল্য শান্ত নিরীহ ভাব অবলম্বন করিতে হইবে।

জুগুপ্সিতান্ ন মন্যেত নাবমন্যেত মানিনঃ॥১৫

নিন্দিত অসৎ ব্যক্তিদিগকে সম্মান দিবে না এবং সম্মানের যোগ্য ব্যক্তিগণের অবমাননা করিবে না।

অসৎ ব্যক্তিকে সম্মান প্রদর্শন করা গৃহীর কর্তব্য নয়; কারণ তাহাতে অসদ্বিষয়েরই প্রশ্রয় দেওয়া হয়। আবার যাঁহারা সম্মানের যোগ্য, তাঁহাদিগকে যদি গৃহস্থ সম্মান না করেন, তাহাও তাঁহার পক্ষে মহা অন্যায়।

সৌহার্দ্যং ব্যবহারাংশ্চ প্রবৃত্তিং প্রকৃতিং নৃণাম্।
সহবাসেন তর্কেশ্চ বিদিত্বা বিশ্বসেত্ততঃ॥১৬

একত্রবাস ও সবিশেষ পর্যালোচনা দ্বারা লোকের বন্ধুত্ব, ব্যবহার, প্রবৃত্তি ও প্রকৃতি জানিয়া তবে তাহাদের উপর বিশ্বাস করিবে।

গৃহস্থ যে-কোন ব্যক্তির সঙ্গে বন্ধুত্ব করিবে না, যেখানে সেখানে যাইয়া লোকের সঙ্গে হঠাৎ বন্ধুত্ব করিবে না। প্রথমতঃ যাঁহাদের সঙ্গে বন্ধুত্ব করিতে ইচ্ছা, তাঁহাদের কার্যকলাপ ও অন্যান্য ব্যক্তিদের সহিত তাঁহাদের ব্যবহার বিশেষরূপে পর্যবেক্ষণ করিয়া, সেইগুলি বিচারপূর্বক আলোচনা করিয়া তারপর বন্ধুত্ব করা উচিত।

স্বীয়ং যশঃ পৌরুষঞ্চ গুপ্তয়ে কথিতঞ্চ যৎ।
কৃতং যদুপকারায় ধর্মজ্ঞো ন প্রকাশয়েৎ॥১৭

গৃহস্থ তিনটি বিষয়ে কিছু বলিবেন নাঃ নিজ যশ ও পৌরুষের বিষয়, অপরের কথিত গুপ্ত কথা এবং অপরের উপকারার্থ তিনি যাহা করিয়াছেন, ধর্মজ্ঞ গৃহস্থ তাহা সাধারণের নিকট প্রকাশ করিবেন না।

সাধ্য করিলেন, কিন্তু তাহাও তো যথেষ্ট হইল না। পিতামাতার কার্য সম্পূর্ণ করিতে চেষ্টা করা সন্তানের কর্তব্য; অতএব আমাদের শরীরও এই উদ্দেশ্যে সমর্পিত হউক’—এই বলিয়া তাহারাও সকলে মিলিয়া অগ্নিতে ঝাঁপ দিল।

ঐ তিন ব্যক্তি যাহা দেখিলেন, তাহাতে আশ্চর্য হইয়া গেলেন, কিন্তু পাখীগুলিকে খাইতে পারিলেন না। কোনরূপে তাঁহারা অনাহারে রাত্রিযাপন করিলেন। প্রভাত হইলে রাজা ও সন্ন্যাসী সেই রাজকন্যাকে পথ দেখাইয়া দিলেন, এবং তিনি তাঁহার পিতার নিকট ফিরিয়া গেলেন।

তখন সন্ন্যাসী রাজাকে সম্বোধন করিয়া বলিলেন, ‘রাজন্, দেখিলেন তো নিজ নিজ ক্ষেত্রে প্রত্যেকেই বড়। যদি সংসারে থাকিতে চান, তবে ঐ পাখীদের মত প্রতিমুহূর্তে পরার্থে নিজেকে উৎসর্গ করিবার জন্য প্রস্তুত হইয়া থাকুন। আর যদি সংসার ত্যাগ করিতে চান, তবে ঐ যুবকের মত হউন, যাহার পক্ষে পরমাসুন্দরী যুবতী ও রাজ্য অতি তুচ্ছ মনে হইয়াছিল। যদি গৃহস্থ হইতে চান, তবে আপনার জীবন সর্বদা অপরের কল্যাণের জন্য উৎসর্গ করিতে প্রস্তুত থাকুন। আর যদি আপনি ত্যাগের জীবনই বাছিয়া লন, তবে সৌন্দর্য ঐশ্বর্য ও ক্ষমতার দিকে মোটেই দৃষ্টিপাত করিবেন না। প্রত্যেকেই নিজ নিজ কর্মক্ষেত্রে বড় কিন্তু একজনের যাহা কর্তব্য, তাহা অপর জনের কর্তব্য নয়।’


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