गीता : समर सज्जा



पांडवों ने बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास समाप्त होने पर जब प्रतिज्ञा के अनुसार अपना आधा राज्य माँगा, तब दुर्योधन ने आधा राज्य तो क्या, तीखी सूई की नोक-जितनी जमीन भी बिना युद्ध के देनी स्वीकार नहीं की। अतः पांडवों ने माता कुंती की आज्ञा के अनुसार युद्ध करना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार पाण्डवों और कौरवों का युद्ध होना निश्चित हो गया और तदनुसार दोनों ओर से युद्ध की तैयारी होने लगी। महर्षि वेदव्यास जी का धृतराष्ट्र पर बहुत स्नेह था। उस स्नेह के कारण उन्होंने धृतराष्ट्र के पास आकर कहा कि ‘युद्ध होना और उसमें क्षत्रियों का महान संहार होना अवश्यम्भावी है, इसे कोई टाल नहीं सकता। यदि तुम युद्ध देखना चाहते हो तो मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि दे सकता हूँ, जिसमें तुम यहीं बैठे-बैठे युद्ध को अच्छी तरह से देख सकते हो।’ इस पर धृतराष्ट्र ने कहा कि ‘मैं जन्मभर अन्धा रहा, अब अपने कुल के संहार को मैं दखना नहीं चाहता; परंतु युद्ध कैसे हो रहा है- यह समाचार जरूर सुनना चाहता हूँ।’ तब व्यासजी ने कहा कि ‘मैं संजय को दिव्य दृष्टि देता हूँ, जिससे यह सम्पूर्ण युद्ध को, सम्पूर्ण घटनाओं को, सैनिकों के मन में आयी हुई बातों को भी जान लेगा, सुन लेगा, देख लेगा और सब बातें तुम्हें सुना भी देगा ।’ ऐसा कहकर व्यास जी ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की। निश्चित समय के अनुसार कुरुक्षेत्र में युद्ध आरम्भ हुआ। दस दिन तक संजय युद्ध-स्थल में ही रहे। जब पितामह भीष्म बाणों के द्वारा रथ से गिरा दिए गये, तब संजय ने हस्तिनापुर में (जहाँ धृतराष्ट्र विराजमान थे) आकर धृतराष्ट्र को यह समाचार सुनाया। इस समाचार को सुनकर धृतराष्ट्र को बड़ा दुःख हुआ और वे विलाप करने लगे। फिर उन्होंने संजय से युद्ध का सारा वृत्तान्त सुनाने के लिए कहा। भीष्म पर्व के चौबीसवें अध्याय तक संजय ने युद्ध –संबंधी बातें धृतराष्ट्र को सुनायी[1]। 25वें अध्याय के आरंभ में धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं।

धृतराष्ट्र उवाच[1]

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।। 1 ।।


अर्थ- धृतराष्ट्र बोले- हे सञ्जय ![2] धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरे और पांडु के पुत्रों ने भी क्या किया?


व्याख्या- ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’- कुरुक्षेत्र में देवताओं ने यज्ञ किया था। राजा कुरु ने भी यहाँ तपस्या की थी। यज्ञादि धर्ममय कार्य होने से तथा राजा कुरु की तपस्याभूमि होने से इसको धर्मभूमि कुरुक्षेत्र कहा गया है। यहाँ ‘धर्मक्षेत्रे’ और ‘कुरुक्षेत्रे’ पदों में ‘क्षेत्र’ शब्द देने में धृतराष्ट्र का अभिप्राय है कि यह अपनी कुरुवंशियों की भूमि है। यह केवल लड़ाई की भूमि ही नहीं है, प्रत्युत तीर्थभूमि भी है, जिसमें प्राणी जीते-जी पवित्र कर्म करके अपना कल्याण कर सकते हैं। इस तरह लौकिक और पारलौकिक सब तरह का लाभ हो जाय- ऐसा विचार करके एवं श्रेष्ठ पुरुषों की सम्मति लेकर ही युद्ध के लिए यह भूमि चुनी गयी है। संसार में प्रायः तीन बातों को लेकर लड़ाई होती है- भूमि, धन और स्त्री। इन तीनों में भी राजाओं का आपस में लड़ना मुख्यतः जमीन को लेकर होता है। यहाँ ‘कुरुक्षेत्रे’ पद देने का तात्पर्य भी जमीन को लेकर लड़ने में है। कुरुवंश में धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्र सब एक हो जाते हैं। कुरुवंशी होने से दोनों का कुरुक्षेत्र में अर्थात राजा कुरु की जमीन पर समान हक लगता है। इसलिए[3] दोनों जमीन के लिए लड़ाई करने आए हुए हैं।

यद्यपि अपनी भूमि होने के कारण दोनों के लिए ‘कुरुक्षेत्रे’ पद देना युक्तिसंगत, न्यायसंगत है, तथापि हमारी सनातन वैदिक संस्कृति ऐसी विलक्षण है कि कोई भी कार्य करना होता है, तो वह धर्म को सामने रखकर ही होता है। युद्ध-जैसा कार्य भी धर्मभूमि- तीर्थभूमि में ही करते हैं, जिससे युद्ध में मरने वालों का उद्धार हो जाय, कल्याण हो जाय। अतः यहाँ कुरुक्षेत्र के साथ ‘धर्मक्षेत्रे’ पद आया है। यहाँ आरम्भ में ‘धर्म’ पद से एक और बात भी मालूम होती है। अगर आरम्भ के ‘धर्म’ पद में से ‘धर्’ लिया जाए और अठारहवें अध्याय के अंतिम श्लोक के ‘मम’ पद में से ‘म’ लिया जाए, तो ‘धर्म’ शब्द बन जाता है। अतः सम्पूर्ण गीता धर्म के अंतर्गत है, अर्थात धर्म का पालन करने से गीता के सिद्धांतों का पालन हो जाता है और गीता के सिद्धान्तों के अनुसार कर्तव्य-कर्म करने से धर्म का अनुष्ठान हो जाता है। इन ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ पदों से सभी मनुष्यों को यह शिक्षा लेनी चाहिए कि कोई भी काम करना हो तो वह धर्म को सामने रखकर ही करना चाहिए। प्रत्येक कार्य सबके हित की दृष्टि से ही करना चाहिए, केवल अपने सुख-आराम की दृष्टि से नहीं; और कर्तव्य-अकर्तव्य के विषय में शास्त्र को सामने रखना चाहिए[4]। ‘समवेता युयुत्सवः’- राजाओं के द्वारा बार-बार सन्धि का प्रस्ताव रखने पर भी दुर्योधन ने सन्धि करना स्वीकार नहीं किया। इतना ही नहीं, भगवान श्रीकृष्ण के कहने पर भी मेरे पुत्र दुर्योधन ने स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के मैं तीखी सूई की नोक-जितनी जमीन भी पांडवों को नहीं दूँगा।[5]


तब मजबूर होकर पाण्डवों ने भी युद्ध करना स्वीकार किया है। इस प्रकार मेरे पुत्र और पाण्डुपुत्र- दोनों ही सेनाओं के सहित युद्ध की इच्छा से इकट्टे हुए हैं। दोनों सेनाओं में युद्ध की इच्छा रहने पर भी दुर्योधन में युद्ध की इच्छा विशेष रूप से थी। उसका मुख्य उद्देश्य राज्य प्राप्ति का ही था। वह राज्य प्राप्ति धर्म से हो चाहे अधर्म से, न्याय से हो चाहे अन्याय से, विहित रीति से हो चाहे निषिद्ध रीति से, किसी भी तरह से हमें राज्य मिलना चाहिये- ऐसा उसका भाव था। इसलिए विशेषरूप से दुर्योधन का पक्ष ही युयुत्सु अर्थात युद्ध की इच्छा वाला था। पाण्डवों में धर्म की मुख्यता थी। उनका ऐसा भाव था कि हम चाहे जैसा जीवन-निर्वाह कर लेंगे, पर अपने धर्म में बाधा नहीं आने देंगे, धर्म के विरुद्ध नहीं चलेंगे। इस बात को लेकर महाराज युधिष्ठिर युद्ध नहीं करना चाहते थे। परंतु जिस माँ की आज्ञा से युधिष्ठिर ने चारों भाइयों सहित द्रौपदी से विवाह किया था, उस माँ की आज्ञा होने के कारण ही महाराज युधिष्ठिर की युद्ध में प्रवृत्ति हुई थी[1] अर्थात केवल माँ के आज्ञा पालन रूप धर्म से ही युधिष्ठिर युद्ध की इच्छा वाले हुए हैं।

तात्पर्य है कि दुर्योधन आदि तो राज्य को लेकर ही युयुत्सु थे, पर पाण्डव धर्म को लेकर ही युयुत्सु बने थे। ‘मामकाः पाण्डवाश्चैव’- पाण्डव धृतराष्ट्र को[2] पिता के समान समझते थे और उनकी आज्ञा का पालन करते थे। धृतराष्ट्र द्वारा अनुचित आज्ञा देने पर भी पाण्डव उचित-अनुचित का विचार न करके उनकी आज्ञा का पालन करते थे। अतः यहाँ ‘मामकाः’ पद के अंतर्गत कौरव[3] और पाण्डव दोनों आ जाते हैं। फिर भी ‘पाण्डवाः’ पद अलग देने का तात्पर्य है कि धृतराष्ट्र का अपने पुत्रों में तथा पाण्डु पुत्रों में समान भाव नहीं था। उनमें पक्षपात था, अपने पुत्रों के प्रति मोह था। वे दुर्योधन आदि को तो अपना मानते थे, पर पाण्डवों को अपना नहीं मानते थे।[4] इस कारण उन्होंने अपने पुत्रों के लिए ‘मामकाः’ और पाण्डुपुत्रों के लिए ‘पाण्डवाः’ पद का प्रयोग किया है; क्योंकि जो भाव भीतर होते हैं, वे ही प्रायः वाणी से बाहर निकलते हैं। इस द्वैधीभाव के कारण ही धृतराष्ट्र को अपने कुल के संहार का दुःख भोगना पड़ा।

इससे मनुष्य मात्र को यह शिक्षा लेनी चाहिए कि वह अपने घरों में, मुहल्लों में, गाँवों में, प्रांतों में, देशों में, सम्प्रदायों में द्वैधीभाव अर्थात ये अपने हैं, ये दूसरे हैं- ऐसा भाव न रखे। कारण कि द्वैधीभाव से आपस में प्रेम स्नेह नहीं होता प्रत्युत कलह होती है। यहाँ ‘पाण्डवाः’ पद के साथ ‘एव’ पद देने का तात्पर्य है कि पाण्डव तो बड़े धर्मात्मा हैं; अतः उन्हें युद्ध नहीं करना चाहिये था। परंतु वे भी युद्ध के लिए रणभूमि में आ गए तो वहाँ आकर उन्होंने क्या किया?

[‘मामकाः’ और ‘पाण्डवाः’[5]इनमें से पहले ‘मामकाः’ पद का उत्तर संजय आगे के[6] श्लोक से तेरहवें श्लोक तक देंगे कि आपके पुत्र दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना को देखकर द्रोणाचार्य के मन में पाण्डवों के प्रति द्वेष पैदा करने के लिए उनके पास जाकर पाण्डवों के मुख्य-मुख्य सेनापतियों के नाम लिये।


उसके बाद दुर्योधन ने अपनी सेना के मुख्य-मुख्य योद्धाओं के नाम लेकर उनके रण कौशल आदि की प्रशंसा की। दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए भीष्मजी ने जोर से शंख बजाया। उसको सुनकर कौरव सेना में शंख आदि बाजे बज उठे। फिर चौदहवें श्लोक से उन्नीसवें श्लोक तक ‘पाण्डवाः’ पद का उत्तर देंगे कि रथ में बैठे हुए पाण्डवपक्षीय भगवान श्रीकृष्ण ने शंख बजाया। उसके बाद अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव आदि ने अपने-अपने शंख बजाये, जिससे दुर्योधन की सेना का हृदय दहल गया। उसके बाद भी संजय पाण्डवों की बात कहते-कहते बीसवें श्लोक से श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का प्रसंग आरंभ कर देंगे।]

‘किमकुर्वत’- ‘किम्’ शब्द के तीन अर्थ होते हैं- विकल्प, निन्दा[1] और प्रश्न। युद्ध हुआ कि नहीं? इस तरह का विकल्प तो यहाँ लिया नहीं जा सकता; क्योंकि दस दिन तक युद्ध हो चुका है, और भीष्मजी को रथ से गिरा देने के बाद संजय हस्तिनापुर आकर धृतराष्ट्र को वहाँ की घटना सुना रहे हैं। ‘मेरे और पांडु के पुत्रों ने यह क्या किया, जो कि युद्ध कर बैठे! उनको युद्ध नहीं करना चाहिए था’- ऐसी निन्दा या आक्षेप भी यहाँ नहीं लिया जा सकता; क्योंकि युद्ध तो चल ही रहा था और धृतराष्ट्र के भीतर भी आक्षेपपूर्वक पूछने का भाव नहीं था।

यहाँ ‘किम्’ शब्द का अर्थ प्रश्न लेना ही ठीक बैठता है। धृतराष्ट्र, संजय से भिन्न-भिन्न प्रकार की छोटी-बड़ी सब घटनाओं को अनुक्रम से विस्तारपूर्वक ठीक-ठीक जानने के लिए ही प्रश्न कर रहे हैं।

सम्बन्ध- धृतराष्ट्र के प्रश्न का उत्तर संजय आगे के श्लोक से देना आरंभ करते हैं।


 

सञ्जय उवाच

दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।

आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ।। 2 ।।


अर्थ- संजय बोले- उस समय वज्रव्यूह- से खड़ी हुई पाण्डव-सेना को देखकर राजा दुर्योधन, द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन बोला।


व्याख्या- ‘तदा’- जिस समय दोनों सेनाएँ युद्ध के लिए खड़ी हुई थीं, उस समय की बात संजय यहाँ ‘तदा’ पद से कहते हैं। कारण कि धृतराष्ट्र का प्रश्न ‘युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया’- इस विषय को सुनने के लिए ही है। ‘तु’- धृतराष्ट्र ने अपने और पांडु के पुत्रों के विषय में पूछा है। अतः संजय भी पहले धृतराष्ट्र के पुत्रों की बात बताने के लिए यहाँ ‘तु’ पद का प्रयोग करते हैं। ‘दृष्टवा[2] पाण्डवानीकं व्यूढम्’ – पाण्डवों की वज्रव्यूह से खड़ी सेना को देखने का तात्पर्य है कि पाण्डवों की सेना बड़ी ही सुचारू रूप से और एक ही भाव से खड़ी थी अर्थात उनके सैनिकों में दो भाव नहीं थे, मतभेद नहीं था[3]। उनके पक्ष में धर्म और भगवान श्रीकृष्ण थे। जिसके पक्ष में धर्म और भगवान होते हैं, उसका दूसरों पर बड़ा असर पड़ता है। इसलिए संख्या में कम होने पर भी पाण्डवों की सेना का तेज[4] था और उसका दूसरों पर बड़ा असर पड़ता था। अतः पाण्डव सेना का दुर्योधन पर भी बड़ा असर पड़ा, जिससे वह द्रोणाचार्य के पास जाकर नीतियुक्त गंभीर वचन बोलता है। ‘राजा दुर्योधनः’- दुर्योधन को राजा कहने का तात्पर्य है कि धृतराष्ट्र का सबसे अधिक अपनापन[5] दुर्योधन में ही था। परंपरा की दृष्टि से भी युवराज दुर्योधन ही था। राज्य के सब कार्यों की देखभाल दुर्योधन ही करता था। धृतराष्ट्र तो नाममात्र के राजा थे। युद्ध होने में भी मुख्य हेतु दुर्योधन ही था। इन सभी कारणों से संजय ने दुर्योधन के लिए ‘राजा’ शब्द का प्रयोग किया है। ‘आचार्यमुपसंगम्य’- द्रोणाचार्य के पास जाने में मुख्यतः तीन कारण मालूम देते हैं-


अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए अर्थात द्रोणाचार्य के भीतर पाण्डवों के प्रति द्वेष पैदा करके उनको अपने पक्ष में विशेषता से करने के लिए दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास गया।

व्यवहार में गुरु के नाते आदर देने के लिए द्रोणाचार्य के पास जाना उचित था।

मुख्य व्यक्ति का सेना में यथा स्थान खड़े रहना बहुत आवश्यक होता है, अन्यथा व्यवस्था बिगड़ जाती है। इसलिए दुर्योधन का द्रोणाचार्य के पास खुद जाना उचित ही था।


यहाँ शंका हो सकती है कि दुर्योधन को तो पितामह भीष्म के पास जाना चाहिए था, जो कि सेनापति थे। पर दुर्योधन गुरु द्रोणाचार्य के पास ही क्यों गया? इसका समाधान यह है कि द्रोण और भीष्म- दोनों उभय-पक्षपाती थे अर्थात वे कौरव और पांडव- दोनों का ही पक्ष रखते थे। उन दोनों में भी द्रोणाचार्य को ज्यादा राजी करना था; क्योंकि द्रोणाचार्य के साथ दुर्योधन का गुरु के नाते तो स्नेह था, पर कुटुम्ब के नाते स्नेह नहीं था; और अर्जुन पर द्रोणाचार्य की विशेष कृपा थी। अतः उनको राजी करने के लिए दुर्योधन का उनके पास जाना ही उचित था। व्यवहार में भी यह देखा जाता है कि जिसके साथ स्नेह नहीं है, उससे अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए मनुष्य उसको ज्यादा आदर देकर राजी करता है।

दुर्योधन के मन में यह विश्वास था कि भीष्म जी तो हमारे दादा जी ही हैं; अतः उनके पास न जाऊँ तो भी कोई बात नहीं है। न जाने से अगर वे नाराज भी हो जायँगे तो मैं किसी तरह से उनको राजी कर लूँगा। कारण कि पितामह भीष्म के साथ दुर्योधन का कौटुम्बिक सम्बन्ध और स्नेह था, भीष्म का भी उसके साथ कौटुम्बिक सम्बन्ध और स्नेह था। इसलिए भीष्म जी ने दुर्योधन को राजी करने के लिए जोर से शंख बजाया है।[1]

‘वचनमब्रवीत्’- यहाँ ‘अब्रवीत्’ कहना ही पर्याप्त था; क्योंकि ‘अब्रवीत्’ क्रिया के अंतर्गत ही ‘वचनम्’ आ जाता है अर्थात दुर्योधन बोलेगा, तो वचन ही बोलेगा। इसलिए यहाँ ‘वचनम्’ शब्द की आवश्यकता नहीं थी। फिर भी ‘वचनम्’ शब्द देने का तात्पर्य है कि दुर्योधन नीतियुक्त गंभीर वचन बोलता है, जिससे द्रोणाचार्य के मन में पांडवों के प्रति द्वेष पैदा हो जाय और वे हमारे ही पक्ष में रहते हुए ठीक तरह से युद्ध करें। जिससे हमारी विजय हो जाए, हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जाए।

सम्बन्ध- द्रोणाचार्य के पास जाकर दुर्योधन क्या वचन बोला- इसको आगे के श्लोक में बताते हैं।


 

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।

व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।। 3 ।।


अर्थ- हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा व्यूह रचना से खड़ी की हुई पांडवों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए।


व्याख्या- ‘आचार्य’- द्रोण के लिए ‘आचार्य’ संबोधन देने में दुर्योधन का यह भाव मालूम देता है कि आप हम सब के- कौरवों और पांडवों के आचार्य हैं। शस्त्रविद्या सिखाने वाले होने से आप सब के गुरु हैं। इसलिए आपके मन में किसी का पक्ष या आग्रह नहीं होना चाहिए।

‘तव शिष्येण धीमता’- इन पदों का प्रयोग करने में दुर्योधन का भाव यह है कि आप इतने सरल हैं कि अपने मारने के लिए पैदा होने वाले धृष्टद्युम्न को भी आपने अश्त्र-शस्त्र की विद्या सिखायी है; और वह आपका शिष्य धृष्टद्युम्न इतना बुद्धिमान है कि उसने आपको मारने के लिए आपसे ही अस्त्र-शस्त्र की विद्या सीखी है।

‘द्रुपदपुत्रेण’- यह पद कहने का आशय है कि आपको मारने के उद्देश्य को लेकर ही द्रुपद ने याज को उपयाज नामक ब्राह्मणों से यज्ञ कराया, जिससे धृष्टद्युम्न पैदा हुआ। वही यह द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न आपके सामने[2] सेनापति के रूप में खड़ा है।


यद्यपि दुर्योधन यहाँ ‘द्रुपद पुत्र’ के स्थान पर ‘धृष्टद्युम्न’ भी कह सकता था, तथापि द्रोणाचार्य के साथ द्रुपद जो वैर रखता था, उस वैरभाव को याद दिलाने के लिए दुर्योधन यहाँ ‘द्रुपद पुत्रेण’ शब्द का प्रयोग करता है कि अब वैर निकालने का अच्छा मौका है।

‘पाण्डुपुत्राणाम् एतां व्यूढां महतीं चमूं पश्य’- द्रुपद पुत्र के द्वारा पांडवों की इस व्यूहाकार खडी हुई बड़ी भारी सेना को देखिए। तात्पर्य है कि जिन पांडवों पर आप स्नेह रखते हैं, उन्हीं पांडवों ने आपके प्रतिपक्ष में खास आपको मारने वाले द्रुपद पुत्र को सेनापति बनाकर व्यूह-रचना करने का अधिकार दिया है। अगर पांडव आपसे स्नेह रखते तो कम से कम आपको मारने वाले को तो अपनी सेना का मुख्य सेनापति नहीं बनाते, इतना अधिकार तो नहीं देते। परंतु सब कुछ जानते हुए भी उन्होंने उसी को सेनापति बनाया है। यद्यपि कौरवों की अपेक्षा पांडवों की सेना संख्या में कम थी अर्थात कौरवों की सेना ग्यारह अक्षौहिणी[1] और पांडवों की सेना सात अक्षौहिणी थी, तथापि दुर्योधन पांडवों की सेना को बड़ी भारी बता रहा है। पांडवों की सेना को बड़ी भारी कहने में दो भाव मालूम देते हैं-


पांडवों की सेना ऐसे ढंग से व्यूहाकार खड़ी हुई थी, जिससे दुर्योधन को थोड़ी सेना भी बहुत बड़ी दीख रही थी और

पांडव सेना में सब के सब योद्धा एक मत के थे। इस एकता के कारण पांडवों की थोड़ी सेना भी बल में, उत्साह में बड़ी मालूम दे रही थी। ऐसी सेना को दिखाकर दुर्योधन द्रोणाचार्य से यह कहना चाहता है कि युद्ध करते समय आप इस सेना को सामान्य और छोटी न समझें। आप विशेष बल लगाकर सावधानी से युद्ध करें। पांडवों का सेनापति है तो आपका शिष्य द्रुपदपुत्र ही; अतः उस पर विजय करना आपके लिए कौन-सी बड़ी बात है।

‘एतां पश्य’ कहने का तात्पर्य है कि यह पांडव सेना युद्ध के लिए तैयार होकर सामने खड़ी है। अतः हम लोग इस सेना पर किस तरह से विजय कर सकते हैं- इस विषय में आपको जल्दी से जल्दी निर्णय लेना चाहिये।

सम्बन्ध- द्रोणाचार्य से पांडवों की सेना देखने के लिये प्रार्थना करके अब दुर्योधन उन्हें पांडव सेना के महारथियों को दिखाता है।


अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।

युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।। 4 ।।

धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।

पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंग्वः।। 5 ।।

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।

सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।। 6 ।।


अर्थ- यहाँ[2] बड़े-बड़े शूरवीर हैं, जिनके बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं तथा जो युद्ध में भीम और अर्जुन के समान हैं। उनमें युयुधान[3], राजा विराट और महारथी द्रुपद भी हैं। धृष्टकेतु और चेकितान तथा पराक्रमी काशिराज भी हैं। पुरुजित और कुंतिभोज- ये दोनों भाई तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य भी हैं। पराक्रमी युधामन्यु और |पराक्रमी उत्तमौजा भी हैं। सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र भी हैं। ये सब-के-सब महारथी हैं।


व्याख्या- ‘अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि’- जिनसे बाण चलाए जाते हैं, फेंके जाते हैं, उनका नाम ‘इष्वास’ अर्थात धनुष है। ऐसे बड़े-बड़े इष्वास[4] जिनके पास हैं, वे सभी ‘महेश्वास’ हैं। तात्पर्य है कि बड़े धनुषों पर बाण चढ़ाने एवं प्रत्यञ्चा खींचने में बहुत बल लगता है। जोर से खींचकर छोड़ा गया बाण विशेष मार करता है।

ऐसे बड़े-बड़े धनुष पास में होने के कारण ये सभी बहुत बलवान और शूरवीर हैं। ये मामूली योद्धा नहीं है। युद्ध में भीम और अर्जुन के समान हैं अर्थात बल में ये भीम के समान और अस्त्र-शस्त्र की कला में ये अर्जुन के समान हैं।

युयुधानः- युयुधान[1] ने अर्जुन से अस्त्र-शस्त्र की विद्या सीखी थी। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा दुर्योधन को नारायणी सेना देने पर भी वह कृतज्ञ होकर अर्जुन के पक्ष में ही रहा, दुर्योधन के पक्ष में नहीं गया। द्रोणाचार्य के मन में अर्जुन के प्रति द्वेषभाव पैदा करने के लिए दुर्योधन महारथियों में सबसे पहले अर्जुन के शिष्य युयुधान का नाम लेता है। तात्पर्य है कि इस अर्जुन को तो देखिए! इसने आपसे ही अस्त्र-शस्त्र चलाना सीखा है और आपने अर्जुन को यह वरदान भी दिया है कि संसार में तुम्हारे समान और कोई धनुर्धर न हो, ऐसा प्रत्यन करूँगा[2]। इस तरह आपने तो अपने शिष्य अर्जुन पर इतना स्नेह रखा है, पर वह कृतघ्न होकर आपके विपक्ष में लड़ने के लिए खड़ा है, जबकि अर्जुन का शिष्य युयुधान उसी के पक्ष में खड़ा है।

[युयुधान महाभारत के युद्ध में न मरकर यादवों के आपसी युद्ध में मारे गए।]

विराटश्च- जिसके कारण हमारे पक्ष का वीर सुशर्मा अपमानित किया गया, आपको सम्मोहन अस्त्र से मोहित होना पड़ा और हम लोगों को भी जिसकी गायें छोड़कर युद्ध से भगना पड़ा, वह राजा विराट आपके प्रतिपक्ष में खड़ा है। राजा विराट के साथ द्रोणाचार्य का ऐसा कोई वैरभाव या द्वेषभाव नहीं था; परंतु दुर्योधन यह समझता है कि अगर ययुधान के बाद मैं द्रुपद का नाम लूँ तो द्रोणाचार्य के मन में यह भाव आ सकता है कि दुर्योधन पांडवों के विरोध में मेरे को उकसाकर युद्ध के लिए विशेषता से प्रेरणा कर रहा है तथा मेरे मन में पांडवों के प्रति वैरभाव पैदा कर रहा है। इसलिए दुर्योधन द्रुपद के नाम से पहले विराट का नाम लेता है, जिससे द्रोणाचार्य मेरी चालाकी न समझ सकें और विशेषता से युद्ध करें।

[राजा विराट उत्तर, श्वेत और शंख नामक तीनों पुत्रों सहित महाभारत- युद्ध में मारे गए।]

‘द्रुपदश्च महारथः’- आपने तो द्रुपद को पहले की मित्रता याद दिलायी, पर उसने सभा में यह कहकर आपका अपमान किया कि मैं राजा हूँ और तुम भिक्षुक हो; अतः मेरी-तुम्हारी मित्रता कैसी? तथा वैरभाव के कारण आपको मारने के लिए पुत्र भी पैदा किया, वही महारथी द्रुपद आपसे लड़ने के ले विपक्ष में खड़ा है।

[राजा द्रुपद युद्ध में द्रोणाचार्य के हाथ से मारे गए।]

धृष्टकेतुः- यह धृष्टकेतु कितना मूर्ख है कि जिसके पिता शिशुपाल को कृष्ण ने भरी सभा में चक्र से मार डाला था, उसी कृष्ण के पक्ष में यह लड़ने के लिए खड़ा है!

[धृष्टकेतु द्रोणाचार्य के हाथ से मारे गए।]

चेकितानः- सब यादव सेना तो हमारी ओर से लड़ने के लिए तैयार है और यह यादव चेकितान पांडवों की सेना में खडा है!

[चेकितान दुर्योधन के हाथ से मारे गए।]

काशिराजश्च वीर्यवान्- यह काशिराज बड़ा ही शूरवीर और महारथी है। यह भी पांडवों की सेना में खड़ा है। इसलिए आप सावधानी से युद्ध करना; क्योंकि यह बड़ा पराक्रमी है।

[काशिराज महाभारत-युद्ध में मारे गए।]


पुरुजित्कुन्तिभोजश्च- यद्यपि पुरुजित और कुंतिभोज- ये दोनों कुंती के भाई होने से हमारे और पांडवों के मामा हैं, तथापि इनके मन में पक्षपात होने के कारण ये हमारे विपक्ष में युद्ध करने के लिए खड़े हैं।

[पुरुजित और कुंतिभोज- दोनों ही युद्ध में द्रोणाचार्य के हाथ से मारे गए।]

‘शैब्यश्च नरपुंगवः’- यह शैव्य युधिष्ठिर का श्वशुर है। यह मनुष्यों में श्रेष्ठ और बहुत बलवान है। परिवार के नाते यह भी हमारा सम्बन्ध है। परंतु यह पांडवों के ही पक्ष में खड़ा है।

‘युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्’- पाश्चाल देश के बड़े बलवान और वीर योद्धा युधामन्यु तथा उत्तमौजा मेरे वैरी अर्जुन के रथ के पहियों की रक्षा में नियुक्त किए गए हैं। आप इनकी ओर भी नजर रखना।

[रात में सोते हुए इन दोनों को अश्वत्थामा ने मार डाला।]

सौभद्रः- यह कृष्ण की बहन सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु है। यह बहुत शूरवीर है। इसने गर्भ में ही चक्रव्यूह भेदन की विद्या सीखी है। अतः चक्रव्यूह रचना के समय आप इसका ख्याल रखें।

[युद्ध में दुःशासन पुत्र के द्वारा अन्यापूर्वक सिर पर गदा का प्रहार करने से अभिमन्यु मारे गए।]

‘द्रौपदेयाश्च'- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव- इन पाँचों के द्वारा द्रौपदी के गर्भ से क्रमशः प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकर्मा, शतानीक और श्रुतसेन पैदा हुए हैं। इन पाँचों को आप देख लीजिए।द्रौपदी ने भरी सभा में मेरी हँसी उड़ाकर मेरे हृदय को जलाया है, उसी के इन पाँचों पुत्रों को युद्ध में मारकर आप उसका बदला चुकायें।

[रात में सोते हुए इन पाँचों को अश्वत्थामा ने मार डाला।]

‘सर्व एव महारथाः’- ये सब-के-सब महारथी हैं। जो शास्त्र और शस्त्रविद्या- दोनों में प्रवीण हैं और युद्ध में अकेले ही एक साथ दस हजार धनुर्धारी योद्धाओं का संचालन कर सकता है, उस वीर पुरुष को ‘महारथी’ कहते हैं[1]। ऐसे बहुत से महारथी पांडव सेना में खड़े हैं।

संबंध- द्रोणाचार्य के मन में पांडवों के प्रति द्वेष पैदा करने और युद्ध के लिए जोश दिलाने के लिए दुर्योधन ने पांडव सेना की विशेषता बतायी। दुर्योधन के मन में विचार आया कि द्रोणाचार्य पांडवों के पक्षपाती हैं ही; अतः वे पांडव सेना की महत्ता सुनकर मेरे को यह कह सकते हैं कि जब पांडवों की सेना में इतनी विशेषता है, तो उनके साथ तू संधि क्यों नही कर लेता? ऐसा विचार आते ही दुर्योधन आगे के तीन श्लोकों में अपनी सेना की विशेषता बताता है।


अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।

नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ।। 7 ।।


अर्थ- हे द्विजोत्तम! हमारे पक्ष में भी जो मुख्य हैं, उन पर भी आप ध्यान दीजिये। आपको याद दिलाने के लिये मेरी सेना के जो नायक हैं, उनको मैं कहता हूँ।



व्याख्या- ‘अस्मांक तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम’- दुर्योधन द्रोणाचार्य से कहता है कि हे द्विजश्रेष्ठ! जैसे पांडवों की सेना में श्रेष्ठ महारथी हैं, ऐसे ही हमारी सेना में भी उनसे कम विशेषता वाले महारथी नहीं हैं, प्रत्युत उनकी सेना के महारथियों की अपेक्षा ज्यादा ही विशेषता रखने वाले हैं। उनको भी आप समझ लीजिये। तीसरे श्लोक में ‘पश्य’ और यहाँ ‘निबोध’ क्रिया देने का तात्पर्य है कि पांडवों की सेना तो सामने खड़ी है, इसलिये उसको देखने के लिये दुर्योधन ‘पश्य’[1] क्रिया का प्रयोग करता है। परंतु अपनी सेना सामने नहीं है अर्थात अपनी सेना की तरफ द्रोणाचार्य की पीठ है, इसलिये उसको देखने की बात न कहकर उस पर ध्यान देने के लिये दुर्योधन ‘निबोध’[2] क्रिया का प्रयोग करता है।

‘नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थ तान्ब्रवीमि ते’- मेरी सेना में भी जो विशिष्ट-विशिष्ट सेनापति हैं, सेनानायक हैं, महारथी हैं, मैं उनके नाम केवल आपको याद दिलाने के लिये, आपकी दृष्टि उधर खींचने के लिये ही कह रहा हूँ।

‘संज्ञार्थम्’ पद का तात्पर्य है कि हमारे बहुत से सेना नायक हैं, उनके नाम मैं कहाँ तक कहूँ; इसलिये मैं उनका केवल संकेतमात्र करता हूँ; क्योंकि आप तो सबको जानते ही हैं। इस श्लोक में दुर्योधन का ऐसा भाव प्रतीत होता है कि हमारा पक्ष किसी भी तरह कमज़ोर नहीं है। परंतु राजनीति के अनुसार शत्रुपक्ष चाहे कितना ही कमज़ोर हो और अपना पक्ष चाहे कितना ही सबल हो, ऐसी अवस्था में भी शत्रुपक्ष को कमज़ोर नहीं समझना चाहिये और अपने में उपेक्षा, उदासीनता आदि की भावना किश्चिन्मात्र भी नहीं आने देनी चाहिये।

इसलिये सावधानी के लिये मैंने उसकी सेना की बात कही और अब अपनी सेना की बात कहता हूँ। दूसरा भाव यह है कि पांडवों की सेना को देखकर दुर्योधन पर बड़ा प्रभाव पड़ा और उसके मन में कुछ भय भी हुआ। कारण कि संख्या में कम होते हुये भी पांडव के पक्ष में बहुत से धर्मात्मा पुरुष थे और स्वयं भगवान थे। जिस पक्ष में धर्म और भगवान रहते हैं, उसका सब पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। पापी-से-पापी, दुष्ट-से-दुष्ट व्यक्ति पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। इतना ही नहीं, पशु-पक्षी, वृक्ष-लता आदि पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। कारण कि धर्म और भगवान नित्य हैं। कितनी ऊँची-से-ऊँची भौतिक शक्तियाँ क्यों न हों, हैं वे सभी अनित्य ही। इसलिये दुर्योधन पर पांडव सेना का बड़ा असर पड़ा। परंतु उसके भीतर भौतिक बल का विश्वास मुख्य होने से वह द्रोणाचार्य को विश्वास दिलाने के लिये कहता है कि हमारे पक्ष में जितनी विशेषता है, उतनी पांडवों की सेना में नहीं है। अतः हम उन पर सहज ही विजय कर सकते हैं।




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