आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि

 


5. गीता की परिभाषा 


1.भाइयो, पिछली बार हमने अर्जुन के विषाद-योग को देखा। जब अर्जुन के जैसी ऋजुता (सरल भाव) और हरिशरणता होती है, तो फिर विषाद का भी योग बनता है। इसी को ‘हृदय-मंथन’ कहते हैं। गीता की इस भूमिका को मैंने उसके संकल्पकारके अनुसार ‘अर्जुन-विषाद-योग’ जैसा विशिष्ट नाम न देते हुए ‘विषाद-योग’ जैसा सामान्य नाम दिया है, क्योंकि गीता के लिए अर्जुन एक निमित्त मात्र है। यह नहीं समझना चाहिए कि पंढरपुर (महाराष्ट्र) के पांडुरंग का अवतार सिर्फ पुंडलीक के लिए ही हुआ, क्योंकि हम देखते हैं कि पुंडलीक के निमित्त से वह हम जड़ जीवों के उद्धार के लिए आज हजारों वर्षों से खड़ा है। इसी प्रकार गीता की दया अर्जुन के निमित्त से क्यों न हो, हम सबके लिए है। अतः गीता के पहले अध्याय के लिए ‘विषाद-योग’ जैसा सामान्य नाम ही शोभा देता है। यह गीतारूपी वृक्ष यहाँ से बढ़ते-बढ़ते अंतिम अध्याय में ‘प्रसाद-योग’ रूपी फल को प्राप्त होने वाला है। ईश्वर की इच्छा होगी, तो हम भी अपनी इस कारावास की मुद्दत में वहाँ तक पहुँच जायेंगे। 


2. दूसरे अध्याय से गीता की शिक्षा का आरम्भ होता है। शुरू में ही भगवान जीवन के महासिद्धान्त बता रहे हैं। इसमें उनका आशय यह है कि यदि शुरू में ही जीवन के वे मुख्य तत्त्व गले उतर जायें, जिनके आधार पर जीवन की इमारत खड़ी करनी है, तो आगे का मार्ग सरल हो जायेगा। दूसरे अध्याय में आने वाले ‘सांख्य-बुद्धि’ शब्द का अर्थ मैं करता हूँ- जीवन के मूलभूत सिद्धान्त। इन मूल सिद्धान्तों को अब हमें देख जाना है। परन्तु इसके पहले यदि हम इस ‘सांख्य’ शब्द के प्रसंग से गीता के पारिभाषिक शब्दों के अर्थ का थोड़ा स्पष्टीकरण कर लें, तो अच्छा होगा। ‘गीता’ पुराने शास्त्रीय शब्दों को नये अर्थों में प्रयुक्त करने की आदी है। पुराने शब्दों पर नये अर्थ की कलम लगाना विचार-क्रांति की अहिंसक प्रक्रिया है। व्यासदेव इस प्रक्रिया में सिद्धहस्त हैं। इससे गीता के शब्दों को व्यापक सामर्थ्य प्राप्त हुआ और वह तरोताजा बनी रही, एवं अनेक विचारक अपनी-अपनी आवश्यकता और अनुभव के अनुसार उसमें से अनेक अर्थ ले सके। अपनी-अपनी भूमिका पर से ये सब अर्थ सही हो सकते हैं, और उनके विरोध की आवश्यकता न पड़ने देकर हम स्वतंत्र अर्थ भी कर सकते हैं, ऐसी मेरी दृष्टि है। 


3. इस सिलसिले में उपनिषद में एक सुन्दर कथा है। एक बार देव, दानव और मानव, तीनों प्रजापति के पास उपदेश के लिए पहुँचे। प्रजापति ने सबको एक ही अक्षर बताया- ‘द’। देवों ने कहा- ‘‘हम देवता लोग कामी हैं, हमें विषयभोगों की चाट लग गयी है। अतः हमें प्रजापति ने ‘द’ अक्षर के द्वारा ‘दमन’ करने की सीख दी है।’’ दानवों ने कहा- ‘हम दानव बड़े क्रोधी और दयाहीन हो गये है। हमे ‘द’ अक्षर के द्वारा प्रजापति ने यह शिक्षा दी है कि ‘दया’ करो।’’ मानवों ने कहा- ‘‘हम मानव बड़े लोभी और धन-संचय के पीछे पड़े हैं, हमें ‘द’ अक्षर के द्वारा ‘दान’ करने का उपदेश प्रजापति ने दिया है।’’ प्रजापति ने सभी के अर्थों को ठीक माना, क्योंकि सबने उनको अपने अनुभवों से प्राप्त किया था। गीता की परिभाषा का अर्थ करते समय उपनिषद की यह कथा हमें ध्यान में रखनी चाहिए। 


6. जीवन-सिद्धान्त: 

(1) देह से स्वधर्माचरण 


4. दूसरे अध्याय में जीवन के तीन महासिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं- (1) आत्मा की अमरता और अखंडता, (2) देह की क्षुद्रता और (3) स्वधर्म की अबाध्यता। इनमें स्वधर्म का सिद्धान्त कर्तव्य रूप है और शेष दो ज्ञातव्य हैं। पिछली बार मैंने स्वधर्म के सम्बन्ध में कुछ कहा ही था। यह स्वधर्म हमे निसर्गतः ही प्राप्त होता है। स्वधर्म को कहीं खोजने नहीं जाना पड़ता। ऐसी बात नहीं है कि हम आकाश से गिरे और धरती पर संभले। हमारा जन्म होने से पहले यह समाज था, हमारे मां-बाप थे, अड़ोसी-पड़ोसी थे। ऐसे इस प्रवाह में हमारा जन्म होता है। अतः जिन मां-बाप की कोख से मैं जनमा हूँ उनकी सेवा करने का धर्म मुझे जन्मतः ही प्राप्त हो गया है और जिस समाज में मैंने जन्म लिया, उसकी सेवा करने का धर्म भी मुझे इस क्रम से अपने-आप ही प्राप्त हो गया है। सच तो यह है कि हमारे जन्म के साथ ही हमारा स्वधर्म भी जनमता है, बल्कि यह भी कह सकते हैं कि वह तो हमारे जनम के पहले से ही हमारे लिए तैयार रहता है, क्योंकि वह हमारे जन्म का हेतु है। हमार जन्म उसकी पूर्ति के लिए होता है। कोई-कोई स्वधर्म को पत्नी की उपमा देते हैं और कहते हैं कि जैसे पत्नी का सम्बन्ध अविच्छेद्य माना गया है, वैसे ही यह स्वधर्म-सम्बन्ध भी अविच्छेद्य है। लेकिन मुझे यह उपमा भी गौण मालूम होती है। मैं स्वधर्म के लिए माता की उपमा देता हूँ। मुझे अपनी माता का चुनाव इस जन्म में करना बाकी नहीं रहा। वह पहले ही निश्चित हो चुकी है। वह कैसी भी क्यों न हो, अब टाली नहीं जा सकती। ऐसी ही स्थिति स्वधर्म की है। इस जगत में हमारे लिए स्वधर्म के अतिरिक्त दूसरा कोई आश्रय नहीं है। स्वधर्म को टालने की इच्छा करना मानो ‘स्व’ को ही टालने जैसा आत्मघातकीपन है। स्वधर्म के सहारे ही हम आगे बढ़ सकते हैं। अतः यह यह स्वधर्म का आश्रय कभी किसी को नहीं छोड़ना चाहिए- यह जीवन का एक मूलभूत सिद्धान्त स्थिर होता है। 


5. स्वधर्म हमें इतना सहज प्राप्त है कि हमसे अपने-आप उसी का पालन होना चाहिए। परन्तु अनेक प्रकार के मोहों के कारण ऐसा नहीं होता, अथवा बड़ी कठिनाई से होता है और हुआ भी, तो उसमे विष- अनेक प्रकार के दोष- मिल जाते हैं। स्वधर्म के मार्ग में कांटे बिखेरने वाले मोहों के बाहरी रूपों की तो कोई गिनती ही नहीं है। फिर भी जब हम उनकी छानबीन करते हैं, तो उन सबकी तह में एक मुख्य बात दिखायी देती है- संकुचित और छिछली देह-बुद्धि। मैं और मेरे शरीर से सम्बन्ध रखने वाले व्यक्ति, बस इतनी ही मेरी व्याप्ति- फैलाव है। इस दायरे के बाहर जो हैं, वे सब मेरे लिए गैर अथवा दुश्मन हैं। भेद की ऐसी दीवार यह देह-बुद्धि खड़ी कर देती है। और तारीफ यह है कि जिन्हें मैंने ‘मैं’ अथवा ‘मेरे’ मान लिया, उनके भी केवल शरीर ही वह देखती है। देह-बुद्धि के इस दुहरे पेच में पड़कर हम तरह-तरह के छोटे डबरे बनाने लगते हैं। प्रायः सब लोग इसी कार्यक्रम में लगे रहते हैं। इनमें किसी का डबरा बड़ा, तो किसी का छोटा; परन्तु है आखिर वह डबरा ही। इस शरीर की चमड़ी के जितनी ही उसकी गहराई! कोई कुटुंबाभिमान का डबरा बनाकर रहता है, तो कोई देशाभिमान का। ब्राह्मण-ब्राह्मणेतर नाम का एक डबरा, हिन्दू-मुसलमान नाम का दूसरा। ऐसे एक दो नहीं, अनेक डबरे बने हुए हैं। जिधर देखिए, उधर ये डबरे-ही-डबरे! हमारी इस जेल में भी तो राजनैतिक कैदी और दूसरे कैदी, इस तरह के डबरे बने ही हैं, मानो इसके बिना हम जी ही नहीं सकते। परन्तु इसका नतीजा? यही कि हीन विचारों के कीड़ों की बाढ़ आती है और स्वधर्मरूपी आरोग्य का नाश होता है।


7. जीवन-सिद्धान्त: 

(2) देहातीत आत्मा का भान 

6. ऐसी दशा में स्वधर्मनिष्ठा अकेली पर्याप्त नहीं होती। उसके लिए दूसरे दो और सिद्धान्त जागृत रखने पड़ते हैं। एक तो यह कि मैं यह मरियल देह नहीं हूँ, देह तो केवल ऊपर की क्षुद्र पपड़ी है; और दूसरा यह कि मैं कभी न मरने वाला अखंड और व्यापक आत्मा हूँ। इन दोनों को मिलाकर एक पूर्ण तत्त्वज्ञान होता है। यह तत्त्वज्ञान गीता को इतना आवश्यक जान पड़ता है कि गीता उसी का पहले आवाहन करती है और स्वधर्म का अवतार बाद में करती है। कुछ लोग पूछते हैं कि तत्त्वज्ञान सम्बन्धी ये श्लोक प्रारम्भ में ही क्यों? परन्तु मुझे लगता है कि गीता में यदि कोई श्लोक ऐसे हैं, जिनकी जगह बिलकुल नहीं बदली जा सकती, तो वे ये ही श्लोक हैं। इतना तत्त्वज्ञान यदि मन में अंकित हो जाये, तो फिर स्वधर्म बिलकुल भारी नहीं पड़ेगा। यही नहीं, स्वधर्म के अतिरिक्त और कुछ करना भारी मालूम पड़ेगा। आत्मतत्त्व की अखंडता और देह की क्षुद्रता, इन बातों को समझ लेना कोई कठिन नहीं हैं; क्योंकि ये दोनों सत्य वस्तुएं हैं। परन्तु हमें उनका विचार करना होगा। बार-बार मन में उनका मंथन करना होगा। इस चाम के महत्त्व को घटाकर हमें आत्मा को महत्त्व देना सीखना होगा। 

7. यह देह तो पल-पल बदलती रहती है। बचपन, जवानी और बुढ़ापा- इस चक्र का अनुभव किसे नहीं है? आधुनिक वैज्ञानिकों का तो कहना है कि सात साल में शरीर बिलकुल बदल जाता है और पुराने खून की एक बूंद भी शेष नहीं रहती। हमारे पूर्वज मानते थे कि बारह वर्ष में पुराना शरीर मर जाता है और इसलिए प्रायश्चित, तपश्चर्या, अध्ययन आदि की भी मीयाद बारह-बारह वर्ष की रखते थे। बहुत वर्ष की जुदाई के बाद जब कोई बेटा अपनी मां से मिला, तो मां उसे पहचान न सकी- ऐसे किस्से हम सुनते हैं। तो क्या यही प्रतिक्षण बदलने वाला, प्रतिक्षण मरणशील देह ही तेरा रूप है? रात-दिन जहाँ मल-मूत्र की नालियां बहती हैं और तुझ जैसा जबर्दस्त धोने वाला मिल जाने पर भी जिसका अस्वच्छता का व्रत छूटता ही नहीं, क्या वही तू है? वह अस्वच्छ, तू उसे साफ करने वाला; वह रोगी, तू उसे दवा-पानी देने वाला; वह साढ़े तीन हाथ की जगह घेरे हुए, तू त्रिभुवन-विहारी; वह नित्य परिवर्तनशील, तू उसके परिवर्तन देखने वाला; वह मरने वाला और तू उसके मरण का व्यवस्थापक; तेरा और उसका भेद इतना स्पष्ट होते हुए भी तू इतना संकुचित क्यों कर बनता है? यह क्यों कहता है कि इस देह से जितने सम्बन्ध रखते हैं, वे ही मेरे हैं? और इस देह की मृत्यु के लिए इतना शोक भी क्यों करता है? भगवान पूछते है कि ‘‘अरे, देह का नाश क्या शोक करने जैसी बात है?’’



8. देह तो कपड़े की तरह है। पुराने फट जाते हैं, इसी से तो नये धारण किये जा सकते हैं। यदि कोई एक शरीर आत्मा से सदा के लिए चिपका रहता, तो आत्मा की बुरी गति होती। सारा विकास रुक जाता, आनंद हवा हो जाता और ज्ञानप्रभा मन्द पड़ जाती। अतः देह का नाश शोचनीय नहीं। हाँ, यदि आत्मा का नाश होता, तो अलबत्ता वह एक शोचनीय बात होती। पर वह तो अविनाशी है, वह तो मानों एक अखंड बहता हुआ झरना है। उस पर अनेक देह आते और जाते हैं। इसलिए देह के नाते-रिश्तों के चक्कर में पड़कर शोक करना और ये मेरे तथा पराये हैं, ऐसे भेद या टुकड़े करना सर्वथा अनुचित है। यह सारा ब्रह्मांड मानों एक सुन्दर बुनी हुई चादर है। कोई छोटा बच्चा जैसे हाथ में कैंची लेकर चादर के टुकड़े-टुकड़े कर देता है, वैसे ही इस देह के जितनी कैंची लेकर उस विश्वात्मा के टुकड़े करना कितना लड़कपन और कितनी हिंसा है! सचमुच, यह बड़े दुःख की बात है कि जिस भारत भूमि में ब्रह्मविद्या ने जन्म पाया, उसी में इन छोटे-बड़े गुटों, फिरकों और जातियों की चारों ओर भरमार दिखायी देती है और मरने का तो इतना भय हमारे मन में घर कर गया है कि वैसा शायद ही कहीं दूसरी जगह हो! इसमें कोई शक नहीं कि दीर्घकालीन परतंत्रता का यह परिणाम हैं, परन्तु यह बात भूल जाने से भी काम नहीं चलेगा कि वह भय भी इस परतंत्रता का एक कारण है। 9. ‘मरण’ शब्द भी हमें नहीं सुहाता। मरण का नाम लेना ही हमें अमंगल मालूम होता है। ज्ञानदेव को बड़े दुःख के साथ लिखना पड़ा है- अगा मर हा बोलु न साहती। आणि मेलिया तरी रडती॥ जब कोई मर जाता है, तो कितना रोना-चिल्लाना मचाते हैं! मानों वह हमारा एक कर्त्तव्य ही हो। किराये पर रोने वाले बुलाने तक बात जा पहुँची है। मृत्यु निकट आ जाने पर भी हम रोगी को नहीं बताते। यदि डॉक्टर ने कह दिया हो कि यह नही बचेगा तो रोगी को भ्रम में रखेंगे खुद डॉक्टर भी साफ-साफ नहीं कहेगा। आखिरी दम तक गले में दवा उड़ेलता रहेगा। इसके बजाय यदि सच्ची बात बताकर, धीरज- दिलासा देकर, उसे ईश्वर स्मरण की ओर लगाया जाये, तो कितना उपकार हो! किन्तु उन्हें डर लगता है कि कहीं धक्के से यह मटका पहले ही न फूट जाये! परन्तु भला क्या निश्चित समय से पहले यह मटका फूटने वाला है? और फिर जो मटका दो घंटे बाद फूटनेवाला है, वह थोड़ा पहले ही फूट गया, तो बिगड़ गया? इसके मायने यह नहीं कि हम कठोर-हृदय और प्रेम-शून्य बन जायें। किन्तु देहासक्ति प्रेम नहीं है। उलटे, देहासक्ति को दूर किये बिना सच्चे प्रेम का उदय ही नहीं होता। जब देहासक्ति दूर होगी, तब यह मालूम होगा कि देह तो सेवा का एक साधन है। और तब देह को उसके योग्य प्रतिष्ठा भी प्राप्त होगी। परन्तु आज तो हम देह की पूजा को ही अपना साध्य मान बैठे हैं। हम यह बात भी भूल गये हैं कि साध्य तो स्वधर्माचरण है। स्वधर्माचरण के लिए देह को संभालना चाहिए, उसे खिलाना-पिलाना चाहिए। केवल जीभ के चोचले पूरे करने की जरूरत नहीं। चम्मच से चाहे हलुआ परोसो, चाहे दाल-भात, उसे उसका कोई सुख-दुःख नहीं। ऐसी ही स्थिति जीभ की होनी चाहिए- उसे रस-ज्ञान तो हो, पर सुख-दुःख न हो। शरीर का भाड़ा शरीर को चुका दिया, बस खतम। चरखे से सूत कात लेना है, इसलिए उसमें तेल देने की आवश्यकता है। इसी तरह शरीर से काम लेना है, इसलिए उसमें कोयला डालना जरूरी है। इस प्रकार यदि हम देह का उपयोग करें, तो मूलतः क्षुद्र होने पर भी उसका मूल्य बढ़ सकता है और उसे प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है।

10. लेकिन हम देह को साधन-रूप से काम में न लाकर उसी में डूब जाते हैं और आत्मसंकोच कर लेते हैं। इससे यह देह जो पहले से ही नगण्य है, और भी अधिक क्षुद्र बन जाती है। इसलिए संतजन जोर देकर कहते हैं- देह आणि देह सम्बन्धें निंदावीं। इतरें वंदावीं श्वानसूकरें॥ ‘देह और देह-सम्बन्ध निंद्य है। अन्य श्वान, सूकर आदि भी वंद्य है।’ अरे, तू इस देह की और देह से जिनका सम्बन्ध आया है उन्हीं की, दिन-रात पूजा मत कर। दूसरों को भी पहचानना सीख। संत इस प्रकार हमें व्यापक होने की सीख देते हैं। हम अपने आप्त-इष्ट-मित्रों के अतिरिक्त दूसरों के पास अपनी आत्मा जरा ले जाते हैं क्या? जीव जीवांत घालावा। आत्मा आत्म्यांत मिसळावा। ‘‘जीव में जीव उंड़ेलें। आत्मा से आत्मा मिलायें’- ऐसा हम करते हैं क्या? अपने आत्म हंस को इस पिंजरे बाहर की हवा खिलाते हैं क्या? - क्या कभी मन में ऐसा आता है कि ‘अपने माने हुए दायरे को पार कर कल मैंने नये दस मित्र बनाये, आज पंद्रह हुए, कल पचास होंगे, और ऐसा करते-करते एक दिन सारा विश्व ही मेरा और मैं विश्व का, इस प्रकार अनुभव करने लगूंगा।’ हम जेल से अपने नाते-रिश्तेदारों को पत्र लिखते हैं, इसमें क्या विशेषता है? किन्तु जेल से छूटे हुए किसी नये मित्र- राजनैतिक कैदी नहीं, चोर कैदी को पत्र लिखेंगे क्या? 

11.हमारी आत्मा व्यापक होने के लिए छटपटाती रहती है। वह चाहती है कि सारे जगत को गले लगा लें। परन्तु हम उसे बन्द कर देते हैं। आत्मा को हमने कैद कर रखा है। उसकी याद भी हमें नहीं होती। सबेरे से लेकर शाम तक हम देह की सेवा में लगे रहते हैं। दिन-रात यही विचार कि मेरा यह शरीर कितना मोटा हुआ या कितना दुबला हो गया, मानों संसार में कोई दूसरा आनंद ही नहीं रह गया! भोग और स्वाद का आनन्द तो पशु भी लेते हैं। अब त्याग का और स्वाद तोड़ने का आनन्द भी लोगे या नहीं? स्वयं भूख से पीड़ित होते हुए भी भरी थाली दूसरे भूखे मनुष्य को दे देने मे जो आनन्द है, उसका अनुभव करो। उसके स्वाद को चखो। मां जब बच्चे के लिए कष्ट उठाती है, तब उसे इस मिठास का थोड़ा-सा स्वाद चखने को मिलता है। मनुष्य ‘अपना’ कहकर जो संकुचित दायरा बनाता रहता है, उसमें भी उसका उद्देश्य अनजाने यह रहता है कि वह आत्म विकास का स्वाद चखे; क्योंकि देहबद्ध आत्मा कुछ देर के लिए थोड़ी उससे बाहर निकलती है। परन्तु यह बाहर आना किस प्रकार का है? ठीक वैसा जैसा कि जेल की कोठरी के कैदी का काम के बहाने जेल के अहाते में आना। परन्तु आत्मा का काम इतने से नहीं चलता। आत्मा को तो मुक्तानंद चाहिए। 

12. सारांश (1) साधक को चाहिए कि वह अधर्म और परधर्म के टेढ़े रास्ते को छोड़कर स्वधर्म का सहज और सरल मार्ग पकड़े। स्वधर्म का पल्ला वह कभी न छोड़े। (2) देह क्षणभंगुर है।, यह समझकर उसका उपयोग स्वधर्म के लिए ही करें। जब आवश्यकता हो, तो उसे स्वधर्म के लिए त्यागने में भी संकोच न करे। (3) आत्मा की अखंडता और व्यापकता का भान सतत जागृत रखे और चित्त से ‘स्व’-‘पर’ के भेद को निकाल डाले। जीवन के ये मुख्य सिद्धान्त भगवान बताते हैं। जो मनुष्य इनके अनुसार आचरण करेगा, वह निस्संदेह एक दिन नरदेहाचेनि साधनें, सच्चिदानंद-पदवी घेणें- नर देहरूपी साधन के द्वारा सच्चिदानंद पद के अनुभव को प्राप्त करेगा।


8. दोनों का मेल साधने की युक्ति: फलत्याग 

13. भगवान ने जीवन के सिद्धान्त तो बताये, किन्तु केवल सिद्धान्त बता देने से काम पूरा नहीं होता। गीता में वर्णित ये सिद्धांत तो उपनिषदों और स्मृतियों में पहले से ही थे। गीता ने उन्हीं को फिर से उपस्थित किया, इसमें गीता की अपूर्वता नहीं है। उसकी अपूर्वता तो यह बतलाने में है कि इन सिद्धान्तों को आचरण में कैसे लायें। इस महाप्रश्न को हल करने में ही गीता की कुशलता है। जीवन के सिद्धांतो को व्यवहार में लाने की जो कला या युक्ति है, उसी को ‘योग’ कहते हैं। ‘साख्य’ का अर्थ है- ‘सिद्धान्त’ अथवा ‘शास्त्र’ और ‘योग’ का अर्थ है ‘कला’। ज्ञानदेव अपनी साक्षी देते हैं- योगियां साधली जीवन-कळा। ‘योगियों ने जीवन-कला साध ली है।’ गीता सांख्य और योग, शास्त्र और कला, दोनों से परिपूर्ण है। शास्त्र और कला, दोनों के योग से जीवन-सौंदर्य खिलता है। कोरा शास्त्र हवा में रहेगा। संगीत का शास्त्र समझ तो लिया, किन्तु यदि कंठ से संगीत प्रकट करने की कला न सधी, तो नाद-ब्रह्म की सजावट नहीं होगी। यही कारण है कि भगवान ने सिद्धान्तों के साथ-साथ उनका विनियोग सिखाने वाली कला भी बतायी है। भला कौन-सी है वह कला? देह को तुच्छ मानकर, आत्मा की अमरता और अखंडता पर दृष्टि रखकर, स्वधर्म का आचरण करने की कौन सी है वह कला? जो कर्म करते हैं, उनकी वृत्ति दुहरी होती है। एक यह कि अपने कर्म का फल हम अवश्य चखेंगे। वह हमारा अधिकार है। इसके विपरीत दूसरी यह कि यदि हमें फल चखने को न मिले, तो हम कर्म ही नहीं करेंगे। गीता तीसरी ही वृत्ति बताती है। वह कहती है- ‘‘कर्म तो अवश्य करो, पर फल में अपना अधिकार मत मानो’’ जो कर्म करता है, उसे फल का अधिकार अवश्य है। परन्तु तुम उस अधिकार को स्वेच्छा से छोड़ दो। रजोगुण कहता है- ‘‘लूंगा तो फल के सहित ही लूंगा।’’ और तमोगुण कहता है- ‘‘छोडूंगा तो कर्म समेत ही छोडूंगा।’’ ये दोनों एक-दूसरे के भाई ही हैं। अतः तुम इन दोनों से ऊपर उठकर शुद्ध सत्त्वगुणी बनो अर्थात कर्म तो करो, पर फल को छोड़ दो और फल को छोड़कर कर्म करो। पहले और पीछे कहीं भी फल की इच्छा मत रखो।


14. ‘फल की इच्छा न रखो’- ऐसा कहते हुए गीता यह भी जताती है कि कर्म उत्कृष्ट होना चाहिए। सकाम पुरुष कर्म की अपेक्षा निष्काम पुरुष का कर्म अधिक अच्छा होना चाहिए। यह अपेक्षा उचित ही है; क्योंकि सकाम पुरुष तो फलायुक्त है इसलिए फलसम्बन्धी स्वप्न-चिन्तन में उसका थोड़ा-बहुत समय और शक्ति अवश्य लगेगी। परन्तु फलेच्छारहित पुरुष तो प्रत्येक क्षण और सारी शक्ति कर्म में ही लगी रहेगी। नदी को छुट्टी नहीं, हवा को विश्राम नहीं, सूर्य सदैव जलना ही जानता है। इसी प्रकार निष्काम कर्ता सतत सेवा-कर्म को ही जानता है। यदि ऐसे निरन्तर कर्मरत पुरुष का कर्म उत्कृष्ट न होगा, तो किसका होगा? फिर चित्त की समता एक बड़ा ही कुशल गुण है और वह तो निष्काम पुरुष की बपौती ही है। किसी बिलकुल बाहरी कारीगरी के काम में भी हस्तकौशल के साथ यदि चित्त के समत्व का योग हो, तो जाहिर है कि वह काम और भी अधिक सुन्दर बनेगा। इसके अतिरिक्त सकाम और निष्काम पुरुष की कर्म-दृष्टि में जो अंतर है, वह भी निष्काम पुरुष के कर्म के अधिक अनुकूल है। सकाम पुरुष कर्म की ओर स्वार्थ दृष्टि से देखता है। ‘मेरा ही कर्म और मेरा ही फल’ इस दृष्टि के कारण यदि कर्म की ओर से उसका ध्यान थोड़ा हट भी गया, तो उसमें उसे नैतिक दोष नहीं मालूम होता। बहुत हुआ तो व्यावहारिक दोष जान पड़ता है। परन्तु निष्काम पुरुष की तो अपने कर्म के विषय में नैतिक कर्तव्य-बुद्धि रहती है। अतः वह तत्परता से इस बात की सावधानी रखता है कि अपने काम में थोडी सी भी कमी न रह जाये। इसलिए भी उसका कर्म अधिक निर्दोष होगा। किसी भी तरह देखिए, फल-त्याग अत्यंत कुशल एवं सफल तत्त्व सिद्ध होता है। अतः फलत्याग को ‘योग’ अथवा ‘जीवन की कला’ कहना चाहिए। 

15. यदि निष्काम कर्म की बात छोड़ दें, तो भी प्रत्यक्ष कर्म में जो आनन्द है, वह उसके फल में नहीं है! स्वकर्म करते हुये जो एक प्रकार की तन्मयता होती है, वह आनन्द का एक झरना ही है। चित्रकार से कहिए- ‘‘चित्र मत बनाओ, इसके लिए तुम चाहे जितने पैसे ले लो‘‘, तो वह नहीं मानेगा। किसान से कहिए ‘‘खेत पर मत जाओ, गायें मत चराओ, मोट मत चलाओ; तुम जितना कहोगे, उतना अनाज तुम्हें दे देंगे।’’ यदि वह सच्चा किसान होगा तो वह यह सौदा पसन्द नहीं करेगा। किसान प्रातः काल खेत पर जाता है। सूर्यनारायण उसका स्वागत करते हैं। पक्षी उसके लिए गाना गाते हैं। गाय-बैल उसके आसपास घिरे रहते हैं। वह प्रेम से उन्हें सहलाता है। जो पेड़-पौधे लगाये हैं, उनको भर नजर देखता है। इन सब कामों में एक सात्त्विक आनन्द है। यह आनन्द ही उस कर्म का मुख्य और सच्चा फल है। इसकी तुलना में उसका बाह्य फल बिलकुल ही गौण है। गीता जब मनुष्य की दृष्टि कर्म-फल से हटा लेती है, तो वह इस तरकीब से कर्म में उसकी तन्मयता सौगुना बढ़ा देती है। फल-निरपेक्ष पुरुष की कर्मगत तन्मयता सामाधि की कोटि की होती है। इसलिए उसका आनन्द औरों से सौगुना अधिक होता है। इस तरह देखें तो यह बात तुरन्त समझ में आ जाती है कि निष्काम कर्म स्वतः ही एक महान फल है। ज्ञानदेव ने यह ठीक ही पूछा है- वृक्ष में फल लगते हैं, पर फल में अब और क्या फल लगेंगे? इस देह रूपी वृक्ष में निष्काम स्वधर्माचारण जैसा सुन्दर फल लग चुकने पर अब अन्य किस फल की और क्यों अपेक्षा रखें ? किसान खेत में गेहूँ बोये और गेहूँ बेचकर ज्वार की रोटी क्यों खाये? सुस्वादु केले लगाये और उन्हें बेचकर मिर्च क्यों खाये? अरे भाई, केले ही खाओ न! पर लोकमत को यह स्वीकार नहीं। केले खाने का भाग्य पाकर भी लोग मिर्च पर ही टूटते हैं। गीता कहती है- ‘‘तुम ऐसा मत करो, कर्म ही खाओ, कर्म ही पियो और कर्म ही पचाओ।’’ कर्म करने में ही सबकुछ आ जाता है। बच्चा खेलने के आनन्द के लिए खेलता है। इससे उसे व्यायाम का फल सहज ही मिल जाता है। परन्तु उस फल की ओर उसका ध्यान नहीं रहता। उसका सारा आनन्द उस खेल में ही रहता है।


9. फल-त्याग के दो उदाहरण 

16. संतजनों ने अपने जीवन के द्वारा यह बात सिद्ध कर दी है। तुकाराम के भक्ति-भाव को देखकर शिवाजी महाराज के मन में उनके प्रति बहुत आदर होता था। एक बार उन्होंने तुकाराम के घर पालकी भेजकर उनके स्वागत का आयोजन किया। परन्तु तुकाराम को अपने स्वागत की यह तैयारी देखकर भारी दुःख हुआ। उन्होंने अपने मन में सोचा- "यही है मेरी भक्ति का फल ? क्या इसी के लिए मैं भक्ति करता हूँ?" उनको ऐसा प्रतीत हुआ, मानो भगवान मान सम्मान का यह फल उनके हाथ में थमाकर उन्हें अपने से दूर हटाना चाहते हैं। उन्होंने कहा- जाणोनि अंतर। टाळिसील करकर। तुज लागली हे खोडी। पांडुरंगा बहुकुडी॥ { मेरे अंतर को जानते हुए भी तुम मेरी झंझट टालना चाहते हो? हे पांडुरंग! तुम्हारी यह टेव बहुत बुरी है।} "भगवन तुम्हारी यह टेव अच्छी नहीं। तुम ये घुंघची के दाने देकर टरकाना चाहते हो। मन में सोचते होगे कि इस आफत को निकाल ही न दूँ। परन्तु मैं भी कच्चा नहीं हूँ। मैं तुम्हारे पांव पकड़कर बैठ जाऊँगा।" भक्ति ही भक्त का स्वधर्म है और भक्ति में दूसरे-तीसरे फलों की शाखाएं न फूटने देना ही उसकी जीवनकला है। 

17.' पुंडलीक का चरित्र फल-त्याग का इससे भी गहरा आदर्श सामने रखता है। पुंडलीक अपने मां-बाप की सेवा कर रहा था। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर पांडुरंग उसकी भेंट के लिए दौड़े आये। परन्तु पुंडलीक ने पांडुरंग के चक्कर में पड़कर अपने उस सेवा-कार्य को छोड़ने से इनकार कर दिया। अपने मां-बाप की सेवा उसके लिए सच्ची ईश्वर-भक्ति थी। कोई लड़का यदि दूसरों को लूट-खसोटकर अपने मां-बाप को सुख पहुँचाता हो अथवा कोई देश सेवक दूसरे देश का द्रोह करके अपने देश का उत्कर्ष चाहता हो तो दोनों की वह भक्ति, भक्ति नहीं कहलायेगी। यह तो आसक्ति हुई। पुंडलीक ऐसी आसक्ति में फंसा नहीं। उसने सोचा कि परमात्मा जिस रूप को धारणकर मेरे सामने खड़ा हुआ है, क्या वह इतना ही है? उसका यह रूप दिखायी देने से पहले सृष्टि क्या प्रेत थी? वह भगवान से बोला- "भगवन आप स्वयं मुझे मिलने के लिए आये हैं, यह मै जानता हूँ, पर मैं ‘भी’- सिद्धान्त को मानने वाला हूँ। आप ही अकेले भगवान हैं, ऐसा मैं नहीं मानता। मेरे लिए तो आप भी भगवान हैं और ये माता-पिता भी। इनकी सेवा में लगे रहने के कारण मैं आपकी ओर ध्यान नहीं दे सकता, इसके लिए क्षमा कीजिए।’’ इतना कहकर उसने भगवान को खड़े रहने के लिए एक ईंट सरका दी और स्वयं उसी सेवा-कार्य में निमग्न हो रहा। तुकाराम इस प्रसंग को लेकर बड़े कतहूल से विनोदपूर्वक कहते हैं- कां रे प्रेमें मातलासी। उभें केलें विठ्ठलासी। ऐसा कैसा रे तूं धीट। मागें भिरकाविली वीट॥ ‘"तू कैसा पागल प्रेमी है कि तूने विठ्ठल को खड़ा रखा? तू कैसा ढीठ है कि तूने विठ्ठल के लिए ईंट सरका दी ?’’

दूसरा अध्याय सब उपदेश थोड़े में: आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9. फल-त्याग के दो उदाहरण 

18. पुंडलीक ने जो यह ‘भी’- सिद्धान्त का उपयोग किया, वह फलत्याग की युक्ति का एक अंग है। फल-त्यागी पुरुष कर्म समाधि जैसी गंभीर होती है, वैसी ही उसकी वृत्ति व्यापक, उदार और सम रहती है। इस कारण वह विविध तत्त्वज्ञान के जंजाल में नहीं पड़ता और न अपना सिद्धांत छोड़ता है। नान्यदस्तीविवादिनः - ‘यही है, दूसरा बिलकुल नहीं’, ऐसे विवाद में वह नहीं पड़ता। ‘यह भी है और वह भी; परन्तु मेरे लिए तो यही है’ ऐसी उसकी नम्र और निश्चयी वृत्ति रहती है। एक बार एक गृहस्थ एक साधु के पास गया और उसने उससे पूछा- "मोक्ष-प्राप्ति के लिए क्या घर-बार छोड़ना आवश्यक है?" साधु ने कहा- "नहीं तो। देखो, जनक जैसों ने जब राजमहल में रहकर मोक्ष प्राप्त कर लिया, तो फिर तुम्हें ही घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है?" फिर दूसरा मनुष्य आया और साधु से उसने पूछा- "स्वामी जी, घर-बार छोड़े बिना मोक्ष मिल सकता है?" साधु ने कहा- "कौन कहता है? घर में रहकर सेंत-मेंत में ही मोक्ष मिलता होता, तो शुक जैसों ने जो घर-बार छोड़ा, तो क्या वे मूरख थे?" बाद में उन दोनों की जब एक-दूसरे से मुलाकात हुई, तो दोनों में बड़ा झगड़ा मचा। एक कहने लगा- "साधु ने घर-बार छोड़ने के लिए कहा है।" दूसरे ने कहा- "नहीं, उन्होंने कहा है कि घर-बार छोड़ने की आवश्यकता नहीं है।" तब दोनों साधु के पास आये। साधु ने कहा- "दोनों बातें सहीं हैं। जैसी जिसकी भावना वैसा ही उसका मार्ग, और जिसका जैसा प्रश्न, वैसा ही उसका उत्तर। घर छोड़ने की जरूरत है, यह भी सत्य है और घर छोड़ने की जरूरत नहीं है, यह भी सत्य है।" इसी का नाम है ‘भी’- सिद्धान्त। 

19. पुंडलीक के उदाहरण से यह मालूम हो जाता है कि फल-त्याग किस मंजिल तक पहुँचने वाला है। तुकाराम को जो प्रलोभन भगवान देना चाहते थे, उसमें पुंडलीक वाला लालच बहुत ही मोहक था, परन्तु वह उस पर मोहित नहीं हुआ। यदि हो जाता, तो फंस जाता। अतः एक बार साधन का निश्चय हो जाने पर फिर अंत तक उसका आचरण करते रहना चाहिए। फिर बीच में प्रत्यक्ष भगवान के दर्शन जैसी चीज खड़ी हो जाये, तो भी उसके लिए साधन छोड़ने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। देह बची है, वह साधना के लिए ही है। भगवान का दर्शन तो हाथ में ही है, वह जाता कहाँ है? सर्वात्मकर्पण माझें हिरोनि नेतो कोण? मनीं भक्तीची आवडी- "मेरा सर्वात्मभाव कौन छीन ले जा सकता है? मेरा मन तो तेरी भक्ति में रंगा हुआ है।" इसी भक्ति को प्राप्त करने के लिए हमें यह जन्म मिला है। मां ते संगाऽस्त्वकर्मणि- इस गीता वचन का अर्थ यहाँ तक जाता है कि निष्काम कर्म करते हुए अकर्म की अर्थात अंतिम कर्म-मुक्ति की, यानि मोक्ष की भी वासना मत रख। वासना से छुटकारा ही तो मोक्ष है। मोक्ष को वासना से क्या लेना देना? जब फल-त्याग इस मंजिल तक पहुँच जाता है, तब समझो कि जीवनकला की पूर्णिमा सध गयी।



 20. शास्त्र भी बतला दिया, कला भी बतला दी, किन्तु इतने से पूरा चित्र आंखों के सामने खड़ा नहीं होता। शास्त्र निर्गुण है, कला सगुण है; परन्तु सगुण भी साकार हुए बिना व्यक्त नहीं होता। केवल निर्गुण जिस प्रकार हवा में रहता है, उसी प्रकार निराकार सगुण की हालत भी हो सकती है। इसका उपाय है, जिसमें गुण मूर्तिमान हुए हैं, उसका दर्शन। इसीलिए अर्जुन कहता है- "भगवन आपने जीवन के मुख्य सिद्धान्त बता दिये, उन सिद्धान्तों को आचरण में लाने की कला भी बतला दी, तो भी इसका स्पष्ट चित्र मेरे सामने खड़ा नहीं होता। अतः मुझे अब चरित्र सुनाइए। ऐसे पुरुषों के लक्षण बताइए, जिनकी वृद्धि में सांख्य-निष्ठा स्थिर हो गयी है और फल-त्यागरूपी योग जिनकी रग-रग में व्याप्त हो गया है। जिन्हें हम ‘स्थितप्रज्ञ’ कहते हैं, जो फल-त्याग की पूरी गहराई दिखलाते हैं, कर्म-समाधि में मग्न हैं और निश्चय के महा-मेरू है; वे बोलते कैसे हैं, बैठते कैसे हैं, चलते कैसे हैं, यह सब मुझे बताइए। वह मूर्ति कैसी होती है, उसे कैसे पहचाने? यह सब कहिए भगवन!" 

21. इसके लिए भगवान ने दूसरे अध्याय के अंतिम अठारह श्लोक में स्थितप्रज्ञ का गंभीर और उदात्त चरित्र चित्रित किया है। मानों इन अठारह श्लोकों में गीता के अठारह अध्यायों का सार ही एकत्र कर दिया है। ‘स्थितप्रज्ञ’ गीता की आदर्श मूर्ति है। यह शब्द भी गीता का अपना स्वतंत्र है। आगे पांचवें अध्याय में जीवन्मुक्तका, बारहवें में भक्त का, चौदहवें में गुणतीत का और अठारहवें में ज्ञाननिष्ठ का, ऐसा ही वर्णन आया है; परन्तु स्थितप्रज्ञ का वर्णन इस सबसे अधिक सविस्तर और खोलकर किया है। उसमें सिद्ध-लक्षण के साथ-साथ साधक-लक्षण भी बताये हैं। हजारों सत्याग्रही स्त्री-पुरुष सायंकालीन प्रार्थना में इन लक्षणों का पाठ करते हैं। यदि प्रत्येक गांव और प्रत्येक घर में ये पहुँचाये जा सकें, तो कितना आनन्द होगा! परन्तु पहले ये हमारे हृदय में पैठें, तो फिर बाहर अपने-आप पहुँच जायेंगे। नित्यपाठ की चीज यदि यांत्रिक हो गयी, तो फिर वह चित्त में अंकित होने की जगह उलटी मिट जाती है। पर यह दोष नित्यपाठ का नहीं, मनन न करने का है। नित्यपाठ के साथ-साथ नित्य मनन और नित्य आत्मपरीक्षण आवश्यक है। 

22. 'स्थितप्रज्ञ' यानि स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य, यह तो उसका नाम ही बता रहा है। परन्तु संयम के बना बुद्धि स्थिर होगी कैसे? अतः स्थितप्रज्ञ को संयममूर्ति बताया गया है। बुद्धि हो आत्मनिष्ठ, और अंतर-बाह्य इंद्रियां हों बुद्धि के अधीन-यह है संयम का अर्थ। स्थितप्रज्ञ सारी इंद्रियों को लगाम चढ़ाकर उन्हें कर्मयोग में जोतता है। इंद्रिय रूपी बैलों से वह निष्काम स्वधर्माचरण की खेती भलीभाँति करा लेता है। अपना प्रत्येक श्वासोच्छ्वास वह परमार्थ में खर्च करता है।


23. यह इंद्रिय-संयम सरल नहीं है। इंद्रियों से बिलकुल काम ही न लेना एक तरह आसान हो सकता है। मौन, निराहार आदि बातें इतनी कठिन नहीं है। इससे उल्टे, इंद्रियों को खुला छोड़ देना तो सबके लिए सधा-सधाया ही है। परन्तु जिस प्रकार कछुआ खतरे की जगह अपने सभी अवयवों को भीतर खींच लेता है और बिना खतरे वाली जगह पर उनसे काम लेता है; उसी तरह विषय-भोगों से इंद्रियों को समेट लेना और परमार्थ के काम में उनका उचित उपयोग करना, यह संयम कठिन है। इसके लिए महान प्रयत्न की जरूरत है। ज्ञान भी चाहिए। परन्तु इतना होने पर भी ऐसा नहीं है कि वह हमेशा अच्छी तरह सध ही जायेगा। तब क्या हम निराश हो जायें? नहीं, साधक को कभी निराश नहीं होना चाहिए। वह साधना की अपनी सब युक्तियां काम में लाये और फिर भी कमी रह जाये, तो उसमें भक्ति जोड़ दे। यह बड़ा कीमती सुझाव भगवान ने स्थितप्रज्ञ के लक्षणों में दिया है। हां, वह दिया है गिने गिनाये शब्दों में ही। परन्तु ढेरों व्याख्यानों की अपेक्षा वह अधिक कीमती है; क्योंकि जहाँ भक्ति की अचूक आवश्यकता है, वहीं वह उपस्थित की गयी है। स्थितप्रज्ञ के लक्षणों का सविस्तार विवरण हमें आज यहाँ नहीं करना है। परन्तु हम अपनी इस सारी साधना में भक्ति का अपना निश्चित स्थान कहीं भूल न जायें; इसलिए उसकी ओर ध्यान दिया गया। पूर्ण स्थितप्रज्ञ इस जगत में कौन हो गया, सो तो भगवान ही जाने; परन्तु सेवापरायण स्थितप्रज्ञ के उदाहरण के रूप में पुंडलीक की मूर्ति सदैव मेरी आंखों के सामने आती रहती है। वह मैनें आपके सामने रख ही दी है। 


24. अच्छा, अब स्थितप्रज्ञ के लक्षण पूरे हुए, दूसरा अध्याय भी समाप्त हुआ। (निगुण) सांख्य-बृद्धि + (सगुण) योग-बुद्धि + (साकार) स्थितप्रज्ञ                                                 |                                            मिलाकर                                                 |                                       संपूर्ण जीवन-शास्त्र इसमें से ब्रह्मनिर्वाण यानि मोक्ष के सिवा दूसरा क्या फलित हो सकता है?



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